मोदी सरकार के आर्थिक फैसलों पर उठते सवाल

Created on Tuesday, 03 October 2017 10:41
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। किसी भी सरकार की प्रमुख कसौटी उसके आर्थिक फैसले होते हैं क्योंकि इन फैसलों का सीधा प्रभाव देश के हर नागरिक पर पड़ता है। कोई भी व्यक्ति ज्यादा देर तक इन फैसलों पर तटस्थ नही रह सकता है। यदि वह प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष में सरकार का समर्थक होगा तो इन फैसलों को जायज ठहराने के लिये तर्क तलाश लेगा। लेकिन जो व्यक्ति किसी भी दल का सदस्य नही होगा वह इन फैसलों पर अपनी बेबाक प्रतिक्रिया व्यक्त करेगा। 2014 में जब लोकसभा चुनाव हुए थे उस समय पूरा देश मंहगाई बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलित था। अन्ना का आन्दोलन उस रोष का प्रखर मूर्त रूप था। उस समय देश कांग्रेस और यू.पी.ए. के शासन का विकल्प तलाश रहा था। उस समय पूरा रजनीतिक ध्रुवीकरण एन.डी.ए. और यू.पी.ए. की शक्ल में सामने था। इनका कोई तीसरा कारगर विकल्प देश के सामने नही था। इसलिये यू.पी.ए. का विकल्प एन.डी.ए में सारा सत्ता समीकरण केवल भाजपा के गिर्द ही केन्द्रित होकर रह जायेगा यह शायद एन.डी.ए. के घटक दलों को भी अन्दाजा नही था। भाजपा क्योंकि एन.डी.ए. का केन्द्र बिन्दु बन गयी और मोदी कैसे उसके एक मात्र केन्द्रित नेता बन गये इसके कई कारण रहे हैं। लेकिन सत्ता परिवर्तन में ‘‘अच्छे दिन आयेंगे’’ ‘‘काला धन वापिस आने से हर व्यक्ति के खाते मे पन्द्रह लाख आयेंगे’’- इन नारों ने बड़ी प्रमुख भूमिका निभाई है।
इन नारों के प्रलोभन से बनी मोदी सरकार ने जब देश के सामने अपनी आर्थिक सोच और कार्यक्रम रखे और इन्हे अमली जामा पहनाने के लिये फैसले लेने शुरू किये तब मंहगाई, बेरोजगारी को लेकर बुने गये सारे सपनों की हवा निकल गयी। मंहगाई और बेरोजगारी घटने की बजाये और बढ़ गयी। भ्रष्टाचार के खिलाफ भी तीन वर्षों में कोई ठोस परिणाम सामने नही आये हैं। क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ की गयी हर कारवाई के पीछे अब शुद्ध राजनीतिक की गंध आने लगी है। हमारे ही मुख्यमन्त्री के मामले में वीरभद्र के साथ सह अभियुक्त बने उनके एल.आई.सी. एजैन्ट आनन्द चैहान एक वर्ष से अधिक से ईडी की हिरासत में चल रहे हैं और वीरभद्र के खिलाफ अभी तक ईडी अनुपूरक चालान तक दायर नही कर पायी है। यही नही वीरभद्र सिंह के चुनाव शपथ पत्र को लेकर आयी दिल्ली उच्च न्यायालय की टिप्पणी पर अब तक कोई कारवाई न होना तथा दिल्ली से लेकर शिमला तक पूरे भाजपा नेतृत्व का इस पर खामोश रहना भाजपा की ईमानदारी और हल्की राजनीतिक का एक प्रत्यक्ष प्रमाण है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भाजपा भ्रष्टाचार पर केवल राजनीतिक करना चाहती है कारवाई नही।
मोदी सरकार का सबसे बड़ा आर्थिक फैसला नोटबंदी रहा है। इस फैसले से आंतकवाद और कालेधन की कमर तोड़ने के दावे किये गये थे। लेकिन इस फैसले के बाद भी आंतकी घटनाओं में कोई कमी नही आयी है। जाली नोट नये कंरसी के जारी होने के साथ ही बाज़ार में आ गये थे। रिजर्व बैंक ने स्वयं स्वीकारा है कि 500 ओर 1000 के पुराने नोट 99% उसके पास वापिस आ गये हैं। स्वभाविक है कि इन पुराने नोटों के बदले में इनके धारकों को नये नोट दिये गये हैं क्योंकि आर.बी.आई. ने यह नही दावा किया है कि पुराने 99% वापिस आये नोटों में इतने कालेधन के नोट थे ओर उनके बदले में नये नोट नही दिये गये हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि या तो कालेधन को लेकर किये जा रहे स्वामी रामदेव जैसे लोगों के सारे आंकलन और दावे कोरे बकवास थे या फिर नोट बंदी के माध्यम से सारे कालेधन को सफेद करने का अवसर मिल गया। इस नोटबंदी से आर्थिक विकास की दर में कमी आयी है यह देश के सामने स्पष्ट हो चुका है। बल्कि पुरानी कंरसी को नयी कंरसी के साथ बदलने में जो देश का खर्च हुआ है आज उसे जीएसटी जैसे फैसलों से भरने का प्रयास किया जा रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रचार अभियान को हाइटैक करने के लिये जो साधन मोदी को अंबानी और अदानी समूहों द्वारा उपलब्ध करवाये गये थे आज उसकी कीमत चुकाने के लिये हर बड़े व्यापारिक फैसले का लाभार्थी इन उद्योग घरानों को बनाया जा रहा है। यह भी अब देश के सामने स्पष्ट हो चुका है।
आज संभवतः इसी कारण से वित्त मन्त्री अरूण जेटली के फैसलों को लेकर बाजपेयी के समय रहे वित्त मन्त्री यशवन्त सिन्हा ने विवश होकर अपना मुंह खोला है। सिन्हा के स्वर के साथ ही शत्रुघन सिन्हा और डा. स्वामी भी जेटली को असफल वित्त मन्त्री करार दे चुके हैं। बल्कि कुछ लोग तो नागपुर में पिछले दिनों हुई संघ के पूर्व प्रचारकों की बैठक के बाद एक नये आर.एस.एस के पंजीेकरण के लिये जनार्दन मून के नागपुर के सहायक चैरिटी कमीशनर के यहां से आये पंजीकरण के आवेदन को भी इसी दिशा में देख रहे हैं। क्योंकि संघ का गठन तो 27 सितम्बर 1925 को हो गया था और 47 देशों में संघ की मौजूदगी है। लेकिन इसका अपने ही देश में कोई पंजीकरण नही है और शायद इसकी अधिकांश लोगों को तो जानकारी भी नहीं है। ऐसे में आज 90 वर्ष बाद अचानक इस सवाल का नागपुर में ही उठना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि संघ के ही कुछ भागों में सरकार की नीतियों और नीयत को लेकर गंभीर मतभेद पैदा हो चुके हैं।