क्या राम मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा एक राजनीतिक आयोजन था? क्या राम से जुड़ी आस्था का राजनीतिक करण था यह आयोजन? क्या देश के सारे राजनीतिक दल न चाहते हुये भी इसमें एक पक्ष बन गये हैं? यह और ऐसे कई सवाल आने वाले समय में उठेंगे। क्योंकि देश का संविधान अभी भी धर्मनिरपेक्षता पर केंद्रित है। यह देश बहु धर्मी और बहु भाषी है। ऐसे में सरकार का घोषित/अघोषित समर्थन किसी एक धर्म के लिये जायज नहीं ठहराया जा सकता। राम मन्दिर आन्दोलन पर अगर नजर डाली जाये तो इस पर शुरू से लेकर आखिर तक संघ परिवार और उसके अनुषंगिक संगठनों का ही वर्चस्व रहा है। यही कारण रहा है कि आज संघ-भाजपा में ही इसके प्रणेता हाशिये पर चले गये और वर्तमान नेतृत्व इसका सर्वाे सर्वा होकर भगवान विष्णु के अवतार होने के संबोधन तक पहुंच गया। इस स्थिति का संघ/भाजपा के भीतर ही क्या प्रभाव पड़ेगा यह भी आने वाले दिनों में सामने आयेगा यह तय है। क्योंकि पूरा आयोजन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गिर्द केन्द्रित हो गया था। भाजपा के अन्य शीर्ष नेता इस आयोजन में या तो आये ही नहीं या उन पर कैमरे की नजर ही नहीं पडी।
राम मन्दिर प्राण प्रतिष्ठा को लेकर देश के शीर्ष धर्मगुरुओं चारों शंकराचार्यों ने यह सवाल उठाया था कि अधूरे मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा नहीं होती। ऐसा करना कई अनिष्टों का कारण बन जाता है। शंकराचार्यों का यह प्रश्न इस आयोजन में अनुत्तरित रहा है। लेकिन आने वाले समय में यह सवाल हर गांव में उठेगा। क्योंकि हर जगह मन्दिर निर्माण होते ही रहते हैं। इसी आयोजन में प्राण प्रतिष्ठा से पहले साढ़े सात करोड़ से निर्मित दशरथ दीपक का जलकर राख हो जाना क्या किसी अनिष्ट का संकेत नहीं माना जा सकता? स्वर्ण से बनाये गये दरवाजे पर उठे सवालों को कितनी देर नजरअन्दाज किया जा सकेगा? प्राण प्रतिष्ठा के बाद शीशे का न टूटना सवाल बन चुका है। आज मौसम जिस तरह की अनिष्ट सूचक होता जा रहा है क्या उसे आने वाले दिनों में अतार्किक आस्था अगर इन सवालों का प्रतिफल मानने लग जाये तो उसे कैसे रोका जा सकेगा। हिन्दू एक बहुत बड़ा समाज है जिसमें मूर्ति पूजक भी हैं और निराकार के पूजक भी हैं। राम की पूजा करने वाले भी हैं और रावण के पूजक भी हैं। आर्य समाज ने तो हिन्दू धर्म के समान्तर एक अपना समाज खड़ा कर दिया है। आर्य समाजियों के अनुसार वेद का कोई मन्त्र यह प्रमाणित नहीं करता कि मूर्ति में प्राण डाले जा सकते हैं? राधा स्वामी कितना बड़ा वर्ग है क्या उसे राम की मूर्ति की पूजा के लिये बाध्य किया जा सकता है। संविधान निर्माता डॉ. अम्बेदकर क्यों बौद्ध बने थे? ऐसे अनेकों सवाल हैं जो इस आयोजन के बाद उठेंगे उसमें हिन्दू समाज की एकता पर किस तरह का प्रभाव पड़ेगा यह देखना रोचक होगा।
इस आयोजन ने हर राजनीतिक दल और नेता को इसमें एक पक्ष लेने की बाध्यता पर लाकर खड़ा कर दिया है। यही इस आयोजन के आयोजकों की सफलता रही है। इस आयोजन के बाद लोकसभा का चुनाव समय से पूर्व करवाने के संकेत स्पष्ट हो चुके हैं। इस चुनाव में राम मन्दिर निर्माण और उसकी प्राण प्रतिष्ठा को केन्द्रिय मुद्दा बनाया जायेगा। सारे सवालों को नजर अन्दाज करते हुये प्राण प्रतिष्ठा को अंजाम देना प्रधानमंत्री की बड़ी उपलब्धि माना जायेगा। इस उपलब्धि के साये में देश की आर्थिकी, बेरोजगारी और महंगाई पर उठते सवालों को राम विरोध करार दिया जायेगा। जिन गैर भाजपा राज्य सरकारों ने इस आयोजन के दौरान भाजपा की तर्ज पर ही कई कार्यक्रम और आयोजन आयोजित किये हैं वह लोकसभा चुनावों में भाजपा को मात दे पाते हैं या देखना भी रोचक होगा। क्योंकि हर सरकार राम मन्दिर के आचरण में अपनी असफलताओं को छुपाने का प्रयास करेंगे।