हिमाचल सरकार ने ‘सरकार गांव के द्वार’ कार्यक्रम शुरू किया है। मुख्यमंत्री के मुताबिक इस कार्यक्रम के माध्यम से सरकार के परिवर्तनकारी निर्णय और उनके सकारात्मक परिणामों से लोगों को अवगत करवाया जा रहा है। सरकार यदि गांव के द्वार पहुंचने का प्रयास करती हैं तो इससे अच्छा फैसला कोई नहीं हो सकता क्योंकि सरकार के हर फैसले हर योजना का परीक्षा स्थल गांव ही है। ऐसे में आवश्यक हो जाता है कि सरकार जब गांव के द्वार पर जाये तो उसका जाना केवल लाभार्थियों से ही संवाद तक सीमित होकर न रह जाये। ऐसे कार्यक्रम की सार्थकता तभी प्रमाणित हो पायेगी यदि सही में यह आम आदमी का संवाद बन पाये। इसके लिये आवश्यक है कि अब भी सरकार इस कार्यक्रम के तहत गांव जाये तो उसके पास उन सारी योजनाओं और फैसलों की जानकारी हो जो पिछले दस वर्षों में पूर्व सरकारों ने इसी आम आदमी को केंद्र में रख कर लिये थे। यह व्यवहारिक रूप से देखा जाये कि इसमें से कितने फैसले जमीनी हकीकत बन पाये हैं और कितने बजट के अभाव में केवल कागजी होकर रह गये हैं। ऐसे दर्जनों फैसले मिल जायेंगे जो बजट पत्रों में दर्ज हो गये और उनके आधार पर सरकारों को श्रेष्ठता के अवार्ड भी मिल गये लेकिन चुनावों में जनता को उन सरकारों को नकार दिया। यदि पिछले कुछ दशकों में लिये गये फैसले सही में जनहित परक होते तो आज प्रदेश लगातार कर्ज और बेरोजगारी के दल दल में धंस्ता नहीं चला जाता।
इस समय ‘सरकार गांव के द्वार’ कार्यक्रम के तहत पिछले दिनों आयोजित की गयी राजस्व लोक अदालतों के लाभार्थी और आपदा में मकान आदि के लिये मिलने वाली आर्थिक सहायता पाने वाले दो वर्ग ही सामने आ रहे हैं। जबकि राजस्व अदालतों में इंतकाल आदि के लंबित मामले शुद्ध रूप से प्रशासनिक असफलता का प्रमाण है। यह अदालत आयोजित करके लोगों को राहत देने से ज्यादा भ्रष्ट तंत्र को ढकने का ज्यादा प्रयास है। क्योंकि क्या हर सरकार ऐसे मामलों को निपटाने के लिये ऐसी अदालतें आयोजित करके अपनी पीठ थपथपाती रहेगी। इसके लिये स्थायी व्यवस्था कौन करेगा। कायदे से तो ऐसे तंत्र के विरुद्ध कड़ी कारवाई की जानी चाहिये थी। पिछले दिनों प्रदेश उच्च न्यायालय ने प्रशासनिक दायित्व के साथ ही न्यायिक कार्य कर रहे अधिकारियों के काम काज पर जब अप्रसन्नता व्यक्त की तब सरकार ने यह आयोजन शुरू किया।
आज हिमाचल के लिये कर्ज और बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्या बनती जा रही है। प्रदेश का जो कर्ज भार 2013-14 में 31442.56 करोड़ दिखाया गया था वह आज एक दशक में एक लाख करोड़ के पास क्यों पहुंच गया है। यह सारा कर्ज विकास कार्यों के नाम पर लिया गया है क्योंकि राजस्व व्यय के लिये सरकारें कर्ज नहीं ले सकती। क्या सरकार अपने कार्यक्रमों में जनता को यह जानकारी देगी कि यह कर्ज कौन से कार्यों के लिये लिया गया और उससे कितना राजस्व प्राप्त हुआ है। इस समय जो अधीनस्थ सेवा चयन आयोग भंग कर दिया गया था उसकी जे.ओए.आई.टी. कोड की परीक्षा पास किये हुये बच्चे पिछले चार वर्षों से परिणाम की प्रतीक्षा में बैठे अब यह मांग करने पर आ गये हैं कि ‘हमें नौकरी दो या जहर दे दो’। क्या सरकार गांव के द्वार पर जाकर इन बच्चों और उनके अभिभावकों के प्रश्नों का जवाब दे पायेगी? इसी तरह एस.एम.सी. शिक्षकों और गेस्ट टीचरों के मसलों पर जनता का सामना कर पायेगी? यही स्थिति मल्टीपरपज के नाम पर भर्ती कियें गये 6000 युवाओं की है क्या वह 4500 रुपए में अपना और अपने परिवार का भरण पोषण कर पायेंगे? क्या इन सवालों को केंद्र से सहायता न मिल पाने के नाम पर लम्बे समय के लिये टाला जा सकेगा? क्या जनता इन सवालों पर मुख्य संसदीय सचिवों और एक दर्जन से अधिक सलाहकारों और विशेष कार्य अधिकारियों की नियुक्तियों के औचित्य पर सवाल नहीं पूछेगी?