राष्ट्र निर्माण में मीडिया की भूमिका-कुछ सवाल

Created on Monday, 21 November 2022 18:27
Written by Shail Samachar

किसी भी राष्ट्र के आधार उसकी कार्यपालिका, व्यवस्थापालिका और न्यायपालिका माने जाते हैं। राष्ट्र की व्यवस्था चाहे लोकतांत्रिक हो या राजशाही हो इन आधारों का सीधा रिश्ता राष्ट्र के जनमानस से होता है। मीडिया इन आधारों और जनता के बीच एक सशक्त माध्यम के रूप में मौजूद रहता है। राष्ट्र की व्यवस्था चाहे जैसी भी हो उसका अंतिम प्रतिफल जनता का व्यापक हित होता है। क्योंकि जब यह हित किन्हीं कारणों से आहत होता है तो व्यवस्था को लेकर व्यवधान और सवाल दोनों एक साथ पैदा होते हैं। यही व्यवधान राष्ट्र के निर्माण की प्रक्रिया बनते हैं। यहीं से मीडिया की भूमिका का आकलन शुरू हो जाता है। यह देखा जाता है कि मीडिया किसकी पक्षधरता निभा रहा है। यह पक्षधरता ही इस निर्माण में उसकी भूमिका तय करती है। इस परिपेक्ष में जब भारत के संद्धर्भ में चिंतन और चर्चा आती है तब सबसे पहले लोकतांत्रिक व्यवस्था पर ध्यान आकर्षित होता है। लोकतंत्र में विपक्ष और सत्तापक्ष आवश्यक सोपान हैं। लेकिन जब सत्ता पक्ष विपक्ष से मुक्त व्यवस्था की कामना करता हुआ व्यवहारिक तौर पर ही विपक्ष को रास्ते से हटाने के सक्रिय प्रयासों में लग जाता है तो वहीं से लोकतंत्र पर पहला ग्रहण लग जाता है। विपक्ष को हटाने के लिये जब धर्म को भी राजनीति का अभिन्न अंग बनाकर एक सामाजिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया जाता है तो उसकी कीमत आने वाली कई पीढ़ियों को चुकानी पड़ जाती हैं।
आज देश की जो स्थिति निर्मित होती जा रही हैं उसमें पहली बार लोकतंत्र के स्थायी आधारों पर गंभीर सवाल उठते जा रहे हैं। कार्यपालिका को जो स्थायी चरित्र दिया गया था उस पर स्वयं सत्ता पक्ष द्वारा सवाल उठाते हुए उसमें कॉरपोरेट घरानों के नौकरशाहों को कार्यपालिका में जगह दी जा रही है। इसमें रोचक यह है कि इस पर किसी भी मंच पर कोई सार्वजनिक विचार-विमर्श तक नहीं हुआ है। कार्यपालिका का स्टील फ्रेम मानी जाने वाली अखिल भारतीय सेवा संवर्ग ने इसे सिर झुका कर स्वीकार कर लिया है। इसी स्वीकार का परिणाम है कि ईडी आयकर और सीबीआई जैसी संस्थाओं पर राजनीतिक दुरुपयोग के आरोप लग रहे हैं। व्यवस्था पालिका में संसद से लेकर विधानसभाओं तक में हर बार आपराधिक छवि के माननीयों का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। संसद और विधानसभाओं को अपराधियों से मुक्त करवाने के सारे दावे जुमले सिद्ध हुए हैं। अब तो न्यायपालिका की निष्पक्षता पर भी गंभीर आक्षेप लगने शुरू हो गये हैं। यह शुरुआत स्वयं देश के कानून मंत्री ने की है। जब लोकतंत्र के इन आधारों पर ही इस तरह के गंभीर आरोप लगने शुरू हो जायें तो क्या यह सोचना नहीं पड़ेगा कि वह आम आदमी इस व्यवस्था में कहां खड़ा है जिसके नाम पर यह सब किया जा रहा है।
आम आदमी के हित की व्याख्या जब शीर्ष पर बैठे कुछ संपन्न लोग करने लग जाते हैं तब सारी व्यवस्थायें एक-एक करके धराशायी होती चली जाती हैं। बड़ी चालाकी से इसे भविष्य के निर्माण की संज्ञा दे दी जाती है। नोटबंदी और लॉकडउन के समय श्रम कानूनों में हुए संशोधन तथा विवादित कृषि कानून इसी निर्माण के नाम पर लाये गये थे। इन सारे सवालों पर जब मीडिया ने सत्ता पक्ष की पक्षधरता के साथ खड़े होने का फैसला ले लिया तो क्या उसी से राष्ट्र निर्माण में उसकी भूमिका स्पष्ट नहीं हो जाती हैं। आज जब मीडिया सत्ता पक्ष के प्रचारक की भूमिका में आ खड़ा हो गया है तो उससे किस तरह की भूमिका की अपेक्षा की जा सकती है। इसी कारण से आज निष्पक्ष मीडिया को देशद्रोह और सरकारी विज्ञापनों पर रोक जैसे हथियारों से केंद्र से लेकर राज्यों तक की सरकारें प्रताड़ित करने के प्रयासों में लगे हुए हैं। इस हमाम में सत्तापक्ष से लेकर विपक्ष तक की सारी सरकारें बराबर की नंगी हैं। इस परिदृश्य में राष्ट्र निर्माण में मीडिया की भूमिका पर चर्चा करना एक प्रशासनिक औपचारिकता से अधिक कुछ नहीं रह जाता है।