क्या मोदी मुफ्ती बन्द करने की शुरूआत अपनी सरकारों से करेंगे

Created on Monday, 18 July 2022 11:53
Written by Shail Samachar

प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने वोटों के लिए राजनीतिक दलों द्वारा अपनायी जा रही मुफ्ती संस्कृति के प्रति देश और इसके युवाओं को सचेत किया है। प्रधानमन्त्री ने युवाओं का आहवान करते हुए यह आग्रह किया है कि वह इस संस्कृति का शिकार होने से बचें। प्रधानमन्त्री ने इस मुफ्ती को वर्तमान और भविष्य दोनों के लिये ही घातक करार दिया है। प्रधानमंत्री की यह चिंता न केवल जायज है बल्कि इस पर तुरंत प्रभाव से रोक लगनी चाहिए। यह चिंता जितनी जायज है उसी के साथ यह समझना भी उतना ही आवश्यक है कि यह संस्कृति शुरू कैसे हुई? क्या कोई भी राजनीतिक दल और उसकी सरकारें इस संस्कृति से बच पायी हैं? इस संस्कृति पर रोक कौन लगायेगा? क्या प्रधानमंत्री अपनी पार्टी और उसकी सरकारों से इसकी शुरुआत करेंगे? यह कुछ ऐसे सवाल हैं जो आज हर मंच से उठाये जाने आवश्यक हैं। प्रधानमंत्री यदि ईमानदारी से इस पर अमल करने का साहस जुटा पाये तो इसी एक कदम से उनकी अब तक की सारी असफलतायें चर्चा से बाहर हो जायेंगी यह तय है। क्योंकि मुफ्ती का बदल सस्ता है। मुफ्ती से कुछ को लाभ मिलता है जबकि सस्ते से सबको इससे फायदा होता है। मुफ्ती ही भ्रष्टाचार का कारण बनती है। आज पड़ोसी देश श्रीलंका में जो हालात बने हुए हैं उसके कारणों में यह मुफ्ती भी एक बड़ा कारण रही है। प्रधानमन्त्री की यह चिन्ता उस समय सामने आयी है जब रुपया डॉलर के मुकाबले ऐतिहासिक मन्दी तक पहुंच गया है। रुपये की इस गिरावट का असर आयात पर पड़ेगा। जो बच्चे विदेशों में पढ़ाई करने गये हैं उनकी पढ़ाई महंगी हो जायेगी। इस समय हमारा आयात निर्यात से बहुत बढ़ चुका है। शेयर बाजार से विदेशी निवेशक अपनी पूंजी लगातार निकलता जा रहा है। इससे उत्पादन और निर्यात दोनों प्रभावित हो रहे हैं तथा बेरोजगारी बढ़ रही है। रिजर्व बैंक के अनुसार विदेशी निवेशक 18 लाख करोड़ तक का निवेश निकाल सकता है। रिजर्व बैंक देश के 13 राज्यों की सूची जारी कर चुका है। जिनका कर्ज इतना बढ़ चुका है कि वहां कभी भी श्रीलंका घट सकता है। सरकार के वरिष्ठ अधिकारी एक बैठक में प्रधानमन्त्री को इस बारे में सचेत कर चुके हैं। इस समय देश का कर्ज भार 681 बिलियन डॉलर हो चुका है और अगले नौ माह में 267 बिलियन की अदायगी की जानी है। जबकि इस समय विदेशी मुद्राभण्डार 641 बिलियन डॉलर से घटकर 600 बिलियन तक आ पहंुचा है। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक वर्ष बाद 267 बिलियन डॉलर कर्ज की अदायगी के बाद विदेशी मुद्रा भण्डार जब आधा रह जायेगा तब महंगाई का आलम क्या होगा? देश की अर्थव्यवस्था बहुत ही नाजुक दौर से गुजर रही है यह प्रधानमन्त्री के बयान के बाद भक्तों और विरोधियों दोनों को स्पष्ट हो जाना चाहिये। मोदी सरकार को 2020 के अन्त में बैड बैंक बनाना पड़ा था और दो लाख करोड़ का एनपीए रिकवरी के लिये इसे दिया गया था। अब इस प्रयोग के बाद संसद के मानसून सत्र में राष्ट्रीय बैंकों को प्राइवेट सैक्टर को देने का विधेयक ऐजैण्डे पर आ चुका है। इसका परिणाम बैंकिंग पर क्या होगा? इसका अंदाजा लगाने के लिये यह ध्यान में रखना होगा कि 2014 से डिपाजिट पर लगातार ब्याज दरें कम होती गयी हैं। क्योंकि बैंकों का एनपीए बढ़ता चला गया। सरकार ने नोटबंदी से प्रभावित हुई अर्थव्यवस्था को कर्ज के माध्यम से उबारने के जितने भी प्रयास किये उसके परिणाम स्वरूप बैंकों ने सरकार के निर्देशों पर कर्ज तो दिये लेकिन इनकी वापसी नहीं हो पायी। अकेले प्रधानमन्त्री ऋण योजना में ही 18.50 लाख करोड़ का कर्ज बांट दिया गया। इसमें कितना वापस आया और इसके लाभार्थी कौन हैं इसकी तो पूरी जानकारी तक नहीं है। उज्जवला और गृहिणी सुविधा योजनाओं में मुफ्त गैस सिलैण्डर तो एक बार वोट के लिये बांट दिये गये। लेकिन यह सिलैण्डर रिफिल भी हो पाये या नहीं इस पर ध्यान नहीं गया। जनधन में जीरो बैलेंस के बैंक खाते तो खुल गये परंतु क्या सभी खाते ऑपरेट हो पाये यह नहीं देखा गया। व्यवहारिक स्थिति यह है कि 2019 का चुनाव इन मुफ्ती योजनाओं के सहारे जीत तो लिया गया लेकिन आगे आर्थिकी इतनी सक्षम नहीं रह पायी की एक बार फिर मुफ्ती में नया कुछ जोड़ा जा सके। बल्कि आज इस मुफ्ती से श्रीलंका घटने का खतरा मंडराने लग पड़ा है। प्रधानमन्त्री की मुफ्ती को लेकर आयी चिन्ता इसी संभावित खतरे का संकेत है। बल्कि अब मुफ्ती को कानून बनाकर रोकने का साहस करना पड़ेगा और यह शुरुआत प्रधानमन्त्री को अपने दल और अपनी सरकारों से करनी पड़ेगी।