भारत में प्रेस की स्वतंत्रता का लगातार हनन हो रहा है। विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत 180 देशों की सूची में इस वर्ष 150वेें स्थान पर आ गया है। पिछले वर्ष 142 वें स्थान पर था। एक वर्ष में आठ स्थान पर नीचे आ गया है। यह उस समय हो रहा है जब देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था है। लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार के हाथ में शासन व्यवस्था है संविधान के में व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के साथ प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ पिलर माना गया है। संविधान में प्रेस को बाकी तीनों से अलग रखा गया है। इस पर इसमें से किसी का भी सीधा हस्तक्षेप नहीं है। यह इसलिए है ताकि प्रेस समाज के प्रति जवाबदेह हर व्यक्ति से सीधा सवाल कर सके। पूछे हुये सवाल और उसके जवाब तथा उससे जुड़ी जमीनी सच्चाई को पूरी बेबाकी से जनता के सामने रखना प्रेस का कर्म और धर्म दोनों है। प्रेस जनता और शासन व्यवस्था के बीच एक माध्यम एक मीडिया की भूमिका अदा करता है। जब कोई व्यक्ति अदालत तक पहुंचने में भी असमर्थ हो जाता है तब वह अपनी फरियाद लेकर मीडिया के पास आता है ताकि उसकी बात जनता की अदालत तक पहुंच जाये। लोकलाज के चाबुक से शासन और प्रशासन दोनों सजग हो जायें शायद इसलिये जनता को एक बड़ी अदालत की संज्ञा दी गई है। इसी के लिए तो यह कहा गया है ‘‘कि गर तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो’’
लेकिन आज जो हालात हर दिन बनते जा रहे हैं उसमें लोकतंत्र के हर पिलर की भूमिका प्रश्नित होती जा रही है। बल्कि कार्यपालिका और व्यवस्था के गठजोड़ के साथ ही इसमें अब न्यायपालिका के भी शामिल होने की चर्चाएं सामने आने लग गयी हैं। यह स्थिति और भी घातक होने जा रही है। क्योंकि जब न्यायपालिका के बीच से ही यह फैसले आने शुरू हो जायें कि अब देश को धर्मनिरपेक्षता छोड़कर धार्मिक देश हो जाना चाहिये तब क्या इसे गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिये। मेघालय उच्च न्यायालय के जस्टिस सेन के फैसले पर सर्वाेच्च न्यायालय से लेकर संसद में सरकार की चुप्पी तक क्या सब कुछ सवालों में नहीं आ जाता है। यदि आज सविधान में कुछ बदलाव करने की आवश्यकता सरकार और सत्तारूढ़ दल को लग रही है तो उस पर सीधे सार्वजनिक बहस क्यों नहीं उठाई जा सकती। इस बदलाव को एक चुनाव का ही मुद्दा बनाने का साहस सरकार क्यों नहीं दिखा पा रही है। चुनावी मुद्दा बनाकर इस पर जनता का जो भी फैसला आये उसे स्वीकार कर लिया जाये। यह शायद इसलिये नहीं किया जा रहा है कि देश की जनता इसके लिए कतई तैयार नहीं है। क्योंकि जनता ने धर्म का वह रूप भोगा है जहां एक व्यक्ति के छूने मात्र से ही दूसरे का धर्म नष्ट हो जाता था।
लेकिन आज फिर उसी व्यवस्था को लाने की बिसात बिछाई जा रही है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद एक वार्षिक अधिवेशन में 22 वर्ष पूर्व तीन संदनीय संसद के गठन का प्रस्ताव पारित कर चुकी है। इस प्रस्ताव पर भाजपा नेता डॉ. स्वामी का फ्रंट लाइन में विस्तृत लेख छप चुका है। जिस पर आज तक किसी ओर से कोई प्रतिक्रिया तक नहीं आयी है क्यों? लेकिन इस पर अमल करने के लिए दूसरे धर्मों को कमजोर और हीन दिखाने के एजेंडा पर अमल शुरू कर दिया गया है। इस पर किसी का ध्यान न जाये इसके लिये आम आदमी को आर्थिक सवालों में उलझा दिया गया है। महंगाई और बेरोजगारी लगातार इसलिये बढ़ रही है क्योंकि आय और रोजगार के सारे साधनों को एक-एक करके प्राइवेट सैक्टर को सौंपा जा रहा है। पवन हंस और एलआईसी इसके ताजा उदाहरण है। आज आर्थिकी और धार्मिकता पर जब भी मीडिया में किसी ने भी कोई सवाल पूछने का साहस किया है तो उस पर देशद्रोह तक के मामले बना दिए गये हैं। कई लोगों की नौकरियां चली गई है। सवाल पूछते वालों के विज्ञापन तक बंद करके और मुकद्दमे बना दिये गये हैं। भाजपा शासित हर राज्य इस नीति पर चल रहा है। हिमाचल की जयराम सरकार तक इन हथकंडो पर आ चुकी है। शैल इसमें भुक्तभोगी है। लेकिन आज यह असहमति मीडिया से चलकर राजनेताओं तक पहुंच गयी है। जिग्नेश मेवाणी प्रकरण इसका ताजा उदाहरण है। पेपर लीक की खबर छापने वाले पत्रकार को एक विधायक के इशारे पर गिरफ्तार करने तक का जब हालात पहुंच जायें तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्थितियां कहां तक पहुंच चुकी हैं। अब दर्द का हद से गुजरना दवा होने के मुकाम तक पहुंच चुका है। ऐसे में अब यही कहना शेष है कि
‘‘जब डूबेगी कश्ती तो डूबेगें सारे
न तुम ही बचोगे न साथी तुम्हारे’’