कांग्रेस का प्रशांत प्रयोग

Created on Monday, 25 April 2022 05:55
Written by Shail Samachar

पांच राज्यों में मिली चुनावी हार ने कांग्रेस को पेशेवर चुनावी रणनीतिकार की सेवायें लेने के मुकाम पर पहुंचा दिया है। अब साथ ही यह सवाल भी उठने लग पड़ा है कि यदि प्रशांत प्रयोग भी सत्ता में वापसी न करवा पाया तो कांग्रेस कहां जायेगी? कांग्रेस देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी है जिसका देश के निर्माण में एक निश्चित योगदान रहा है। आजादी के वक्त सैकड़ों रियासतों में बंटे देश में केंद्रीय लोकतांत्रिक सत्ता की स्थापना कर पाना कोई आसान काम नहीं था। क्योंकि आज जिस तरह से सार्वजनिक संसाधनों को विनिवेश के नाम पर प्राइवेट सैक्टर को सौंपा जा रहा है यदि यही सब कुछ पहले आम चुनाव के साथ ही कर दिया जाता तो शायद यह देश कुछ अमीर लोगों की व्यक्तिगत संपत्ति बनकर ही रह जाता। उस समय की सरकार के सामने कृषि बैंकिंग और राजाओं के प्रीविपर्सों की नीतियों में बदलाव करना प्राथमिकता थी। इस दायित्व को इन्होंने सफलतापूर्वक अंजाम दिया। लेकिन उस समय भी इन बदलावों का विरोध हुआ और उसमें सी राजगोपालाचार्य, चौधरी चरण सिंह, मीनू मसानी, के एफ रुस्तम जी और प्रो.बलराज मधोक जैसे नाम प्रमुखता से सामने आते हैं। यह जिक्र इसलिये आवश्यक हो जाता है क्योंकि आज निजीकरण सबसे बड़ा आर्थिक सवाल बन चुका है।
इस परिदृश्य में यदि आकलन किया जाये तो कांग्रेस के सारी वस्तुस्थिति को मुख्य रूप से नेहरू तक का कार्यकाल उसके बाद 1977 तक का और फिर 1977 से आज तक का यह एक व्यवहारिक सच है कि कांग्रेस नेतृत्व नेहरू परिवार की परिधि से आज तक बाहर नहीं निकल पाया है। इसका कारण यह रहा है कि देश के सबसे धनी परिवार ने देश की आर्थिक स्थिति को संभालने के लिये अपना सब कुछ राष्ट्र को दे दिया और यह देना ही परिवार को कांग्रेस का केंद्र बना गया। जबकि नेहरू के कार्यकाल में भी संगठन में कामराज प्लान जैसी योजनायें आयी। इंदिरा गांधी को पार्टी में स्थापित होने के लिये कांग्रेस में दो बार विघटन की स्थितियों का सामना करना पड़ा। जिस तरह से इंदिरा गांधी को स्थापित होने के लिए संघर्ष करना पड़ा वही स्थिति राजीव गांधी के लिए भी बनी थी और आज सोनिया, राहुल और प्रियंका के लिये भी वैसी ही स्थितियां निर्मित होती जा रही है। क्योंकि आर्थिक सोच को लेकर ही टकराव देश की राजनीति का एक स्थायी चरित्र बन चुका है। आज इस आर्थिक अवधारणा के टकराव को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आवरण से ढकने का प्रयास किया जा रहा है। तेतीस करोड़ देवी देवताओं की अवधारणा वाले देश को धर्म के गिर्द केंद्रित करने का प्रयास किया जा रहा है।
इस व्यवहारिक वस्तुस्थिति को यदि और गंभीरता से समझा जाये तो यही सामने आता है कि हर बार सत्ता परिवर्तन नेहरू काल से लेकर आज मोदी काल तक भ्रष्टाचार के नाम पर ही होता रहा है। लेकिन भ्रष्टाचार के एक भी बड़े आरोप को प्रमाणित नहीं किया जा सका है। 2014 में भी इसी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सत्ता परिवर्तन हुआ लेकिन आज तक इसका कोई परिणाम सामने नहीं आया है। जबकि आज इसका आकार और प्रकार दोनों ही कई गुना बढ़ चुके हैं। इस बढ़ौतरी को कोई भी मुद्दा नहीं बना पा रहा है। जबकि महंगाई और बेरोजगारी दोनों इसी के परिणाम हैं। सत्ता में बने रहने के लिये चुनाव लगातार महंगे होते जा रहे हैं। इसमें हर छोटे-बड़े चुनाव से पहले धार्मिक और जातीय हिंसा एक बड़ा हथियार बनती जा रही है। हर चुनाव में ईवीएम पर गंभीर से गंभीर सवाल उठते जा रहे हैं। आम आदमी ईवीएम को संदेश से देख रहा है। लेकिन राजनीतिक दल अभी तक इस पर स्पष्ट नहीं हो रहे हैं। ऐसे में सत्तारूढ़ दल से सत्ता छीनने में जनता के सवाल लेकर जनता में जाना पड़ेगा। भ्रष्टाचार को लेकर अपने ही संगठन से शुरुआत करनी होगी।
इस परिदृश्य में यह सवाल रोचक होगा कि प्रशांत किशोर भाजपा के प्रचार तंत्र का मुकाबला करने के लिये किस तरह की नीति पर चलने का सुझाव देते हैं। वह अपने ही सूत्रों के दम पर क्या कांग्रेस का उम्मीदवार बन कर चुनाव लड़ने का साहस दिखायेंगे? क्या पी के सही में सत्ता परिवर्तन चाहते हैं? क्या वह एक राजनीतिक चिंतक होने के नाते कांग्रेस को सहयोग कर रहे हैं? आज सरकार की आर्थिक नीतियां सबसे बड़ा मुद्दा बनी हुई हैं। ऐसे में किसी भी दल को सहयोग देने से पहले यह स्पष्ट करना होगा कि उनकी अपनी आर्थिक सोच क्या है? अन्यथा किसी भी पेशेवर की सलाह पर अमल करना सार्थक परिणाम ही देगा यह तय नहीं माना जा सकता।