महंगाई पर संसद में बहस नहीं हो सकी है क्योंकि सरकार ऐसा नहीं चाहती थी। बल्कि संसद के बाहर सत्तारूढ़ भाजपा महंगाई को जायज ठहराने के लिये दूसरे देशों के तर्क दे रही है। लेकिन श्रीलंका का नाम लेने से परहेज कर रही है। आरबीआई ने भी यह मान लिया है कि अभी महंगाई कम नहीं हो सकती। इस महंगाई के कारण विकास दर भी अनुमानों से कम रहेगी यह भी आरबीआई ने स्वीकार लिया है। सर्वाेच्च न्यायालय ने भी कुछ मामलों पर सुनवाई करते हुये सरकारों को सलाह दी है कि वह योजनायें बनाते समय वित्तीय स्थिति का ध्यान रखें। चुनाव आयोग ने सरकारों द्वारा घोषित मुफ्त उपहारों की योजनाओं पर कहा है कि इन्हें रोकने की उसके पास कोई शक्तियां नहीं है। ऐसी मुफ्त योजनाओं पर फैसला जनता को ही लेना होगा यह चुनाव आयोग की सलाह है। प्रधानमंत्री के साथ पिछले दिनों भारत सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों की हुई एक बैठक में मुफ्ती योजनाओं पर बात उठाते हुये कुछ अधिकारियों ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि इन्हें न रोका गया तो हमारे भी कई राज्यों की हालत श्रीलंका जैसी हो जायेगी। मुफ्ती योजनाओं पर इन अधिकारियों का संकेत आम आदमी पार्टी की ओर था। प्रधानमंत्री के साथ अधिकारियों की यह बैठक काफी वायरल हो चुकी है।
आम आदमी पार्टी ने जिस तर्ज पर दिल्ली में मुफ्ती योजनाओं को अंजाम दिया है उसके परिणाम स्वरूप उसने दो बार भाजपा और कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखा है। इसी मुफ्ती के नाम पर उसने पंजाब में दोनों दलों से सत्ता छीन ली है। अन्य राज्यों में भी वह इसी प्रयोग को दोहराने की योजना पर चल रहा है। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार का संदेश एक ऐसा नारा है जो हर वर्ग के हर आदमी को सीधे प्रभावित करता है। यही दोनों क्षेत्र इस शासनकाल में सबसे बड़े व्यवसायिक मंच बन गये हैं। केंद्र से लेकर राज्यों तक की सभी सरकारें इस व्यपारिकता को रोकने की बजाये आप की तर्ज पर मुफ्ती के चक्रव्यूह में उलझ गयी है। इसलिये निकट भविष्य में इस मुफ्ती के जाल से कोई भी राजनीतिक दल बाहर निकल पायेगा ऐसा नहीं लगता। एक और मुफ्ती का बढ़ता प्रलोभन और दूसरी ओर हर क्षेत्र प्राइवेट सैक्टर के लिये खोल देना समाज और व्यवस्था के लिये एक ऐसा कैंसर सिद्ध होंगे जिस के प्रकोप से बचना आसान नहीं होगा।
ऐसे में यह सवाल अपने आप एक बड़ा आकार लेकर यक्ष प्रशन बनकर जवाब मांगेगा कि ऐसा कब तक चलता रहेगा। क्योंकि मुफ्ती की भार उठाने के लिये हर वर्ग पर परोक्ष /अपरोक्ष करों का बोझ डालना पड़ेगा। करों से सिर्फ कर्ज लेकर ही बचा जा सकता है। क्योंकि हर वह क्षेत्र जिससे राष्ट्रीय कोष को आय हो सकती थी वह प्राइवेट सैक्टर के हवाले कर दिया गया है। इसलिये तो जून 2014 में देश का जो कर्ज भार 54 लाख करोड़ था वह आज बढ़कर 130 लाख करोड़ हो गया है। आईएमएफ के मुताबिक यह कर्ज इस वर्ष की जीडीपी का 90% हो जायेगा। यह आशंका बनी हुई है कि हमारी कई परिसंपत्तियों पर विदेशी ऋणदाता कब्जा करने के कगार पर पहुंच गये हैं। राजनीतिक दलों की प्राथमिकता येन केन प्रकारेण सत्ता पर कब्जा करना और फिर उसे बनाये रखना ही हो गया है। दुर्भाग्य यह है कि संवैधानिक संस्थान भी इस दौड़ में दलों के कार्यकर्ता होकर रह गये हैं। जनता को हर चुनाव में नए नारे के साथ ठगा जा रहा है। मीडिया अपनी भूमिका भूल चुका है क्योंकि बड़े मीडिया संस्थानों पर सत्ता के दलालों का कब्जा हो चुका है। छोटे मीडिया मंचों का गला सत्ता घोंटने में लगी हुई है। इसी सब का परिणाम है कि जिस बड़े शब्द घोष के साथ नरेंद्र मोदी ने संसद और विधानसभाओं को अपराधियों से मुक्त करवाने का दावा किया था उसी अनुपात में यह कब्जा पांच राज्यों के चुनाव में और पूख्ता हो गया हैं। इस वस्तु स्थिति से निकलने के लिये चुनावी व्यवस्था को बदलना ही एकमात्र उपाय रह गया है । इस पर अगले अंक में चर्चा बढ़ाई जाएगी।