राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का चरित्र हनन और उनको मारने वाले नाथूराम गोडसे का महिमा मण्डन करते हुए सोशल मीडिया ओ.टी.टी. मंच लाईम लाईट पर आयी फिल्म ‘‘मैंने गांधी को क्यों मारा’’ के खिलाफ सर्वाेच्च न्यायालय में दायर हुई एक याचिका के माध्यम से इसके प्रसारण पर तुरंत प्रभाव से रोक लगाये जाने का आग्रह किया गया है। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय में भी अधिवक्ता भूपेंद्र शर्मा ने इस आशय की एक याचिका दायर की है जिस पर अदालत ने सभी संबद्ध पक्षों को नोटिस जारी करके जवाब तलब किया है। स्वभाविक है कि इस पर अब चर्चाओं का दौर चलेगा और एक वर्ग इस फिल्म के तथ्य और कथ्य को प्रमाणित सिद्ध करने का प्रयास करेगा। इस बहस के दूरगामी परिणाम होंगे। इसलिये इस संद्धर्भ में कुछ बुनियादी सवाल सामने रखना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि जिन लोगों ने यह फिल्म बनायी है जो लोग इसका समर्थन या विरोध करेंगे और जो इस पर फैसला देंगे वह सभी लोग वह हैं जो 1947 के बाद पैदा हुये हैं। उनका आजादी की लड़ाई का अपना कोई व्यक्तिगत अनुभव नहीं है। सबकी जानकारियां अपने-अपने अध्ययन और उसकी समझ पर आधारित हैं। इस समय जो पार्टी केंद्र में सत्ता में है वह संघ परिवार की एक राजनीतिक इकाई है। संघ की स्थापना 1922 में हुई थी। उस समय संघ का राजनीतिक पक्ष हिंदू महासभा थी। संघ और हिंदू महासभा की स्थापना से लेकर 1947 में देश की आजादी तक इन संगठनों की आजादी की लड़ाई को लेकर रही भूमिका के संद्धर्भ में कोई बड़े नामों की चर्चा नहीं आती है। वीर सावरकर और बी एस मुंजे की जनवरी 1930 में हिटलर से हुई मुलाकात का जिक्र मुंजे की डायरी में मिलता है। जिसमें ऐसे युवा तैयार करने की बात कही गयी है जो बिना तर्क किये कुछ भी करने को तैयार हो जायें। दूसरी ओर कांग्रेस का गठन 1885 में हो जाता है और आजादी की लड़ाई में योगदान करने वालों की एक लंबी सूची उपलब्ध है। इसी सूची में महात्मा गांधी का नाम भी आता है। यह भी तथ्य है कि जब 1935 में अंतरिम सरकारें है बनी थी तब हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग ने बंगाल में संयुक्त सरकार बनाई थी। यह कुछ मोटे तथ्य हैं जिनका कभी कोई खण्डन नहीं आया है।
इस परिदृश्य में जब 1947 में देश आजाद हुआ और साथ ही बंटवारा भी हो गया। तब जनवरी 1948 में गांधी जी की हत्या कर दी गयी। उसी दौरान 1948 और 1949 में संघ ने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और हिंदुस्तान समाचार न्यूज़ एजेंसी की स्थापना कर ली। जब देश बंटवारे के जख्म और गांधी की हत्या के दंश सह रहा था तब संघ भविष्य के मीडिया और युवा शक्ति को अपने उद्देश्य के लिए तैयार करने की व्यवहारिक योजना पर काम करने लग गया था। आज दोनों ईकाईयां सत्ता में कितनी प्रभावी भूमिका निभा रही हैं यह किसी से छिपा नहीं है। यह कहा जाता है कि अंग्रेजों को भगाने के लिये गांधी बंटवारे पर सहमत हो गये थे। उनका विश्वास था कि वह दोनों टुकड़ों को फिर से एक कर लेंगे। गांधी के इस विश्वास की समीक्षा तब हो पाती यदि वह दो-चार वर्ष और जिंदा रहते। गांधी इतिहास के ऐसे मोड़ पर मार दिये गये जहां पर उनको लेकर उठाया जाने वाला हर सवाल बेईमानी हो जाता है। क्योंकि बंटवारे के छः माह के भीतर ही उनको रास्ते से हटा देना एक ऐसा कड़वा सच है जो उन पर उठने वाले सवालों का स्वयं ही जवाब बन जाता है।
संघ अपनी राजनीतिक इकाई जनसंघ के माध्यम सेे 1952 से चुनाव लड़ता आ रहा है। 2014 में भाजपा के नाम से पहली बार अपने तौर पर सत्ता पर काबिज हो पाया है। 1948 से लेकर आज तक संघ की कितनी ईकाईयां हैं और वह क्या-क्या कर रही हैं अधिकांश को पता ही नहीं है। संघ शायद पहली संस्था है जो पंजीकृत नहीं है और अपने स्नातक तक तैयार कर रही है। इसका पाठयक्रम क्या है किसी को कोई सार्वजनिक जानकारी नहीं है। आज तक इसके कितने स्नातक निकल चुके हैं और किस किस फिल्ड में हैं इस पर आम आदमी का ध्यान गया ही नहीं है। इसका इतिहास लेखन प्रकोष्ठ और संस्कार भारती कब से स्थापित हैं और क्या कर रहे हैं शायद आम आदमी को जानकारी ही नहीं है। अभी धर्म संसदों के माध्यमों से यह सामने आया है कि मुस्लिम समुदाय को लेकर इनकी सोच क्या है। जबकि डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी से लेकर संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत तक दर्जनों ऐसे नेता हैं जिनके मुसलमानों के साथ एक और पारिवारिक रिश्ते हैं तो दूसरी ओर यह लोग सार्वजनिक मंचों से उनका विरोध करते हैं। आजादी की लड़ाई के दौरान किस तरह इनके नेता स्वतंत्रता सेनानियों की मुखबिरी करते थे इस संबंध में स्व.अटल जी के खिलाफ ही अदालती साक्ष्य लेकर स्वंय डॉ. स्वामी आये हैं। स्व.अटल जी देश के प्रधानमंत्री रहे हैं लेकिन आजादी की लड़ाई के दौरान उनकी मुखबिरी वाली भूमिका से क्या उन्हें देश हित का विरोधी कहा जा सकता है। नहीं, उस समय उन्होंने ऐसा जो भी कुछ किया होगा अपने वरिष्ठों के आदेशों की अनुपालना में किया होगा। इसलिये आज गांधी नेहरू के चरित्र हनन और उन्हें पाठयक्रमों से हटाकर सच को दबाने के प्रयास देश हित में नहीं माना जा सकता। बल्कि यह माना जायेगा कि ऐसे प्रयासों से आर्थिक असफलताओं को दबाने का काम किया जा रहा है।