क्या फिर मण्डल बनाम कमण्डल होगा

Created on Monday, 16 August 2021 14:29
Written by Shail Samachar

संविधान में हुए 127वें संशोधन से राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की सूची बनाने का अधिकार मिल गया है। इस अधिकार से वह इन वर्गों की अपने राज्य की सूची बनाने के लिये स्वतन्त्र होंगे। इससे अब संविधान की धारा 356(26c) और 338 b(9) में भी संशोधन हो जायेगा। इस संशोधन के राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव क्या होंगे यह तो आने वाले समय में ही पता चलेगा। लेकिन अभी यह उल्लेखनीय है कि जब 7 अगस्त 1990 को तत्कालीन प्रधानमन्त्री वी.पी.सिंह ने संसद में मण्डल आयोग कि सिफारिशें लागू करके अन्य पिछड़ा वर्ग को 27% आरक्षण सरकारी नौकरीयों मेें देने की घोषणा की थी तब पूरे देश में इसका भयानक विरोध हुआ था। देशभर में करीब 200 युवाओं ने आत्मदाह के प्रयास किये थे और 62 की तो मौत भी हो गयी थी। दिल्ली के देशबन्धु कॉलिज का छात्र राजीव गोस्वामी पहला छात्र था जिसने आत्मदाह का प्रयास किया था। दिल्ली के ही एक बारह वर्षीय सातवीं कक्षा के छात्र अतुल अर्ग्रवाल ने भी आत्मदाह का प्रयास किया था। वह 55% तक जल गया था लेकिन उसे बचा लिया गया। बाद में इसी छात्र ने यह स्वीकार किया था कि उसका यह कदम मूर्खतापूर्ण था। शिमला में भी आत्मदाह के प्रयास हुए थे। शायद यह आत्मदाह करने वाले तो यह जानते भी नहीं थे कि आरक्षण का मुद्दा क्या था। मण्डल सिफारिशों पर उभरे इस विरोध का परिणाम यह हुआ कि भाजपा ने वी.पी.सिंह सरकार से अपना समर्थन वापिस ले लिया। इससे सरकार गिर गयी और यह विरोध भी समाप्त हो गया। तभी से आरक्षण के विरोध में एक वर्ग खड़ा हो गया और यह धारणा बन गयी कि इस विरोध को भाजपा का संरक्षण और समर्थन हासिल है। इसी आधार पर स्वर्ण आयोग की मांग उठी जो आज विधानसभा के सदन तक पहुंच चुकी है।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि बहुत सारी स्वर्ण जातियां अपने लिये भी आरक्षण की मांग करती आ रही है। 2014 के बाद से यह मांग ज्यादा मुखर और नियोजित होकर उठी है। हर मांग में यह कहा गया कि या तो हमें भी आरक्षण दो या सबका आरक्षण खत्म करो। आर.एस.एस. प्रमुख डा.मोहन भागवत बड़े खुले शब्दों में यह कह चुके हैं कि आरक्षण पर नये सिरे से विचार होना चाहिये। स्वभाविक है कि जिन परिवारों के बच्चे मण्डल विरोध में आत्मदाह का प्रयास कर चुके हैं और जो इसमें अपने प्राण गंवा चुके हैं वह कभी नहीं चाहेंगे कि आरक्षण कायम रहे। यह उम्मीद इन लोगों को भाजपा से ही है क्योंकि उस समय मण्डल के विरोध में उभरे कमण्डल आन्दोलन को इसी भाजपा का प्रायोजित कहा गया था। इस पृष्ठभूमि में यदि इस पूरे विषय पर निष्पक्षता से विचार करें तो आज तो स्थिति 127वें संविधान संशोधन तक पहुंच गयी है। इस संबंध में उल्लेखनीय है कि समाज के पिछड़े वर्गों की चिन्ता और उन पर चिन्तन का काम तो 1906 से ही शुरू हो गया था जब जातियों की सूची तैयार की गयी थी। आज़ादी के बाद सरकार के सामने यह चिन्ता और चिन्तन सबसे पहला कार्य था। इसीलिये 29 जनवरी 1953 को काका कालेलकर की अध्यक्षता में पहला आयोग गठित किया गया और शैक्षणिक और सामाजिक तौर पर पिछड़ों की पहचान की गयी। इस पहचान के लिये 22 मानक तय किये गये। जिस जाति वर्ग के कुल अंक 11 से बढ़ गये उसे ही इसमें शामिल किया गया। इस आयोग ने 2399 ऐसी कुल जातियों की पहचान की और उसमें से 837 को अति पिछड़े का दर्जा दिया। आयोग ने मार्च 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। लेकिन अपने ही आवरण पत्र में इन सिफारिशों को लागू न करने की बात की। तर्क था कि इससे प्रशासन का काम प्रभावित होगा। यह सुझाव दिया कि इनको मुख्यधारा में लाने के लिये आर्थिक सुधारों और कृषि सुधारों पर जोर देना होगा।
काका कालेलकर आयोग के बाद जनवरी 1979 में इसी आश्य का दूसरा आयोग बिहार के पूर्व मुख्यमन्त्री पी.वी.मण्डल की अध्यक्षता में गठित किया गया। इसकी रिपोर्ट 31 दिसम्बर 1980 को आयी तब मोरारजी देसाई सरकार गिर कर इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बन चुकी थी। इस सरकार में इस रिपोर्ट पर कोई कारवाई नही हुई। इसके 1989 में केन्द्र में वी.पी.सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी। इस सरकार ने मण्डल की सिफारिशों को सरकार की आहूति देकर लागू किया। लेकिन तभी से आरक्षण का विरोध भी चलता आ रहा है जो आज स्वर्ण आयोग की मांग तक पहुंच चुका है। मण्डल की सिफारिशों को 1992 में सर्वाेच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी। लेकिन सर्वाेच्च न्यायालय ने मण्डल की सिफारिशों को तर्क संगत माना। इन्दिरा सहानी फैसला एक मील का पत्थर बन गया क्योंकि इस फैसले में सर्वाेच्च न्यायालय ने क्रीमी लेयर का मानक जोड़ दिया। यह कहा कि जो लोग क्रीमी लेयर में आ जायें उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। 1993 में क्रीमी लेयर में आय का मानक एक लाख रखा गया। जिसे 2004 में बढ़ाकर अढ़ाई लाख 2008 में साढ़े चार लाख और अब 2015 में आठ लाख कर दिया गया है। इसी दौरान जब सर्वाेच्च न्यायालय ने पदोन्नतियों मेें आरक्षण का लाभ न दिया जाने का फैसला दिया और इसका विरोध हुआ तब इस फैसले को मोदी सरकार ने संसद में पलट दिया। अब संविधान में संशोधन करके राज्यों को ओबीसी सूचियां बनाने का अधिकार दे दिया है। इस अधिकार के तहत जब इन सूचियों का आकार बढ़ेगा तब क्या और आरक्षण की मांग नही आयेगी। इस मांग को पूरा करने के लिये आरक्षण का प्रतिशत और बढ़ाना पड़ेगा। यह एक स्वभाविक परिणाम होगा अभी 2017 में जो रोहिणी आयोग गठित किया गया है उसकी रिपोर्ट आनी है। उसमें पिछड़े वर्गाे को भी तीन भागों में बांटा जा रहा हैं पिछड़ा, अति पिछड़ा और सर्वाधिक पिछड़ा। इन्हें इसी 27% में समायोजित किया जायेगा और 7%, 11% और 9% में बांटा जायेगा। इसलिये अभी यह देखना रोचक होगा कि इस 127वें संविधान संशोधन और फिर रोहिणी आयोग की सिफारिशों और स्वर्ण आयोग की मांग में तालमेल कैसे बैठेगा।