पैगासस जासूसी प्रकरण पर चार देशों ने अपने अपने यहां जांच आदेशित कर दी है। भारत सरकार इस मामले को कोई गंभीर विषय ही नहीं मान रही है। संसद में पैगासस और किसान आन्दोलन को लेकर रोज़ हंगामा हो रहा है। सरकार किसान आन्दोलन को भी गंभीर मुद्दा नहीं मान रही है। इन मुद्दों पर भाजपा नेता राज्यपाल सत्य पाल मलिक पूर्व राज्यपाल कप्तान सिंह सोलंकी और बिहार के मुख्यमन्त्री एनडीए के महत्वपूर्ण सहयोगी सरकार को राय दे चुके हैं कि पैगासस की जांच की जाये तथा किसानों की मांगो को हल्के से न लिया जाये। किसानों का मुद्दा भी सर्वोच्च न्यायालय के पास लंबित है और अब नौ याचिकायें पैगासस को लेकर भी सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच चुकी हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार का पक्ष जानने के लिये नोटिस जारी करते हुए कहा है कि यदि सामने आ रही रिपोर्टें सही है तो यह मुद्दा बहुत गंभीर है। रिपोर्टों का सही होना पूर्व आईटी मन्त्री रविशंकर प्रसाद के इस ब्यान से ही स्पष्ट हो जाता है जब उन्होने संसद में यह कहा कि इसमें कुछ भी गैर कानूनी तरीके से नहीं हुआ है। रविशंकर प्रसाद के ब्यान से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जो कुछ भी हुआ है वह सरकार के संज्ञान में रहा है। मैने पिछले लेख में आशंका व्यक्त की थी कि यदि राज्य सरकारें भी ईजरायल से यह जासूसी उपकरण खरीद ले तो किस तरह से हालात देश में बन जायेंगे। अब जब यह खुलासा सामने आ गया है कि 2019 के चुनावों के दौरान महाराष्ट्र सरकार ने भी अपने अधिकारियों की एक टीम इसी आश्य से ईजरायल भेजी थी तो यह आशंका सही सिद्ध हो जाती है। महाराष्ट्र प्रकरण को लेकर मुंबई उच्च न्यायालय में एक याचिका भी दायर हो चुकी है।
अब जब भाजपा के अन्दर से भी इन मुद्दों पर जांच की बात उठना शुरू हो गयी है तो यह तय है कि जैसे -जैसे इसकी गंभीरता का ज्ञान समाज को होना शुरू हो जायेगा तो उसी अनुपात में आम आदमी का भरोसा सरकार पर से उठता जायेगा। क्योंकि नोटबंदी से लेकर आज तक जितने भी आर्थिक फैसले इस सरकार ने लिये उनसे आम आदमी की हालत लगातार बिगड़ती चली गयी है। अब आम आदमी को यह समझ आने लग गया है कि वह इस मंहगाई और बेरोज़गारी के सामने ज्यादा देर तक टिका नहीं रह पायेगा। कैसे उसकी जमा पूंजी पर ब्याज दरें कम होती गयी? क्यों जीरो बैलेंस के नाम खोले गये खातों पर न्यूनतम बैलेन्स न होने पर जुर्माना लगना शुरू हो गया। क्यों रसोई गैस पर मिलने वाली सब्सिडी मजा़क बन गयी है। जिस अनुपात में मंहगाई बढ़ी उसी अनुपात में रोज़गार के साधन खत्म होते गये हैं। इन सवालों पर से ध्यान हटाने के लिये आईटी सैल के कर्मचारी कार्यकर्ता जिस अनुपात में हिन्दु- मुस्लिम करते जा रहे हैं उसी अनुपात में समाज अब इस सबके प्रति सजग होता जा रहा है। शायद इसी सजगता का परिणाम है बंगाल का चुनाव और उसके नतीजे। बंगाल के बाहर इस आईटी सैल ने पूरी सफलता से यह फैला दिया था कि ममता हार रही है। लेकिन परिणाम सबके सामने है और इसी से इस प्रचार तन्त्र की प्रमाणिकता स्पष्ट हो जाती है। इसी के कारण अब राज्यों के चुनाव मुख्यमन्त्रीयों के चेहरे पर लड़ने की नीति अपनाई जा रही है। जो कुछ घट रहा है और उससे जिस तरह आम आदमी प्रभावित और पीड़ित होता जा रहा है उसके अन्तिम परिणाम क्या होंगे यह कहना कठिन है। लेकिन इस सबसे आम आदमी ‘‘बुभुक्षितः किम न करोति पापम’’ के मुकाम पर पुहंचता जा रहा है। आज आम आदमी सरकार की बजाये विपक्ष से सवाल करने लग गया है कि वह चुप क्यों है। क्योंकि सरकार ने कामगार से उसका हड़ताल का हक छीन लिया है, कामगार को उद्योगपति के रहम पर आश्रित कर दिया है। किसान से उसकी किसानी छीनने का पूरा प्लान तैयार है। ऐसे में जब किसान और कामगार देनों मिलकर अपने हक के लिये सड़कों पर आ जायेंगे तब उनके सामने सत्ता बहुत हल्की पड़ जायेगी। अब जब सत्ता पक्ष के बीच से ही पैगासस और किसान को लेकर सवाल उठने शुरू हो गये हैं तो यह तय है कि बहुत जल्दी बहुत कुछ बदलने जा रहा है। किसान और मज़दूर के गठजोड़ के सामने राजनीति का कोई छदम ज्यादा देर खड़ा नहीं रह पायेगा। आर्थिक पीड़ा को कोई हिन्दु-मुस्लिम करके या छदम् विरोध का लवादा ओढ़ कर कोई क्षत्रप राष्ट्रीय राजनीतिक विकल्प नहीं बन पायेगा। आज पूरा देश देख रहा है कि वह कौन सा राजनेता है जो राष्ट्रीय आशंकाओं पर पहले ही दिन से पूरी स्पष्टता के साथ मुखर रहा है। देश यह भी देख रहा है कि पूरा सत्ता पक्ष किसको पूरे परिवार सहित लगातार गाली देता आ रहा है। इस लगातार गाली ने स्वतः ही वह स्थिति ला खड़ी कर दी है कि आम आदमी उस नेता को समझने और पुकारने लग गया है। परिवर्तन के इस संकेत को रोकना अब शायद किसी के भी वश में नहीं रह गया है। यह जन विश्वास खोने के संकेत हैं।