उत्तरप्रदेश के हाथरस में एक दलित परिवार की बेटी के साथ जो कुछ हुआ और इस होने पर इस बेटी की मौत से पहले और उसके बाद जिस तरह का आचरण वहां की पुलिस प्रशासन तथा सरकार का रहा है उससे जनाक्रोश का उभरना स्वभाविक था। इसी जनाक्रोश के परिणाम स्वरूप उच्च न्यायालय ने इसका स्वतः संज्ञान लेते हुए याचिका दायर कर ली है। इसी आक्रोश के बाद पुलिस के पांच अधिकारियों को निलंबित कर दिया गया और अन्ततः मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी गयी। क्योंकि पीड़िता का परिवार पुलिस प्रशासन तथा सरकार किसी पर भी भरोसा नहीं कर पा रहा था। जब मृतका का अन्तिम संस्कार रात को ही कर दिया गया तब यह अविश्वास करने के लिये पर्याप्त आधार बन जाता है। इसी अविश्वास के कारण जनता को आक्रोशित होना पड़ा। राहुल और प्रियंका को पीड़ित परिवार से मिलने आना पड़ा। अब उम्मीद की जानी चाहिये कि सीबीआई की जांच में सारा सच सामने आ जायेगा और उच्च न्यायालय भी इस जांच को शीघ्र पूरा करवायेगा। इसलिये जांच परिणाम आने तक इस प्रकरण पर कुछ ज्यादा लिखना सही नही होगा। लेकिन इस प्रकरण के बाद जो बुनियादी सवाल अलग से उठ खड़े हुए हैं उन्हें नजरअन्दाज करना भी सही नहीं होगा।
पूर्व में जब निर्भया कांड दिल्ली में घटा और फिर हिमाचल में गुड़िया प्रकरण हुआ तब भी पुलिस की भूमिका पर सवाल उठे थे। इन सवालों से सरकारें भी सवालों के घेरे में आ गयी थी। आज हाथरस प्रकरण में फिर पुलिस और सरकार अविश्वास के आरोपों में घिरी हुई है। इससे यह सवाल उठना स्वभाविक है कि आखिर पुलिस पर से विश्वास क्यों उठता जा रहा है। फिर दूसरा सवाल उठता है कि यह अपराध क्यों बढता जा रहा है। आज शायद देश का कोई राज्य ऐसा नही बचा है जहां पर गैंगरेप और फिर हत्या के कांड न हुए हो। अभी हाथरस का आक्रोश थमा भी नही था कि उत्तरप्रदेश के ही बुलन्दरशहर में एक दलित लड़की के साथ ऐसा ही काण्ड घट गया। देवभूमि कहे जाने वाले हिमाचल में गुड़िया काण्ड के बाद अब तक गैंगरेप के 43 मामले घट गये हैं। गैंगरेप के बाद हत्याएं भी हुई हैं। जिस तरह से यौन अपराधों का आंकड़ा हर वर्ष बढ़ता ही जा रहा है उससे यह सवाल उठता है कि क्या समाज ही मानसिक रूप से बीमार हो गया है? क्या आम आदमी को पुलिस और सज़ा का डर ही नहीं रह गया है? क्या जब किसी मामले पर किन्हीं कारणों से जनाक्रोश उभरेगा तब उस पर न्याय की मांग भी उठेगी और कुछ पुलिस कर्मियों के खिलाफ कारवाई भी हो जायेगी? सत्ता तक भी बदल जायेगी और उसके बाद ‘ढाक के वही तीन पात’ घटते रहेंगे?
मैं यह आशंका हिमाचल की ही व्यवहारिक स्थिति को सामने रखकर उठा रहा हंू। 2017 मई में प्रदेश में गुड़िया कांड घटा। भाजपा विपक्ष में थी। पुलिस इस मामले की अभी प्रारम्भिक जांच ही शुरू कर पायी थी कि इसमें मीडिया रिपोर्ट आनी शुरू हो गयी। पुलिस पर शक शुरू हो गया और परिणामस्वरूप उच्च न्यायालय ने दखल दिया और जांच सीबीआई को सौंप दी गयी। प्रदेश ही नहीं दिल्ली तक गुड़िया को न्याय दिलाने के लिये कैण्डल मार्च हुए। सबकुछ हुआ जो आज हाथरस में देखने को मिला है। दिसम्बर में प्रदेश के चुनाव थे यह गुड़िया एक बड़ा मुद्दा बना और सत्ता बदल गयी। लेकिन गुड़िया को अभी तक न्याय नहीं मिला है। बल्कि गुड़िया काण्ड के बाद गैंगरेप के 43 मामले और बढ़ गये। जिनमें कांगड़ा के फतेहपुर में दलित लडक़ी की गैंगरेप के बाद हत्या का मामला है लेकिन इस मामले में कोई बड़ी प्रभावी कारवाई अभी तक नही हुई है। भाजपा सत्ता में है और कांग्रेस ने विधानसभा में बलात्कारों तथा गैंगरेपों पर सवाल पूछकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी। विधानसभा मे यह सवाल चर्चा में आ ही नहीं पाया केवल लिखित उत्तर तक ही रह गया। इससे सबकेे सरोकारों का अन्दाजा लगाया जा सकता है।
इस परिपे्रक्ष में यह तलाशना महत्वपूर्ण और अनिवार्य हो जाता है कि आखिर यह अपराध बढ़ क्यों रहा है? कानून और न्याय का डर तो खत्म होता जा रहा है? इन सवालों पर मंथन करते हुए सबसे पहले तो यह सामने आता है कि आज संसद से लेकर विधानसभाओं तक दर्जनों माननीय ऐसे हैं जिनके खिलाफ हत्या, अपराध और बलात्कार के मामले दर्ज हैं और वर्षों से लंबित चल रहे हैं। मोदी जी ने भी यह वायदा किया था कि वह संसद को अपराधियों से मुक्त करेंगे। लेकिन अभी तक कोई कदम इस दिशा में उठा नहीं पाये हैं। सरकार के बाद दूसरी उम्मीद न्यायपालिका से होती है। लेकिन जब देश के प्रधान न्यायधीश के खिलाफ ही ऐसी शिकायत आई तब जांच के लिये जिस तरह की प्रक्रिया अपनाई गयी उससे यह सामने आ गया कि कानून आम आदमी और विशेष आदमी के लिये कैसे अलग-अलग हो जाता है। न्यायपालिका के बाद मीडिया आता है, उम्मीद की जाती है कि मीडिया जनहित में इसके खिलाफ जिहाद करेगा। लेकिन वहां भी जब ‘‘मीटू’’ के आरोप सामने आ गये और मीडिया पीड़ित को छोड़कर पुलिस और सरकार के साथ खड़ा होकर आक्रोशितों के सामने विभिन्न राज्यों के आंकड़े उछालते हुए जनाक्रोश को कुन्द करने के प्रयासों में लग जाये तो वहां से भी कोई उम्मीद करना बेनामी हो जाता है। ऐसे में अन्त में यही बच जाता है कि आम आदमी के स्वयं ही लामबन्द्ध होकर यह आन्दोलन करना होगा कि ऐसे अपराधियों के खिलाफ कानून की प्रक्रिया एक जैसी ही रहे। ऐसे आरोप झेल रहे माननीयों की संसद/विधानसभा की सदस्यता तुरन्त प्रभाव से खत्म करते हुए यह सुनिश्चित किया कि जिस भी व्यक्ति के खिलाफ अपहरण-बलात्कार ,हत्या के आरोप लगे हों उसे तब तक चुनाव न लड़ने दिया जाये जब तक वह दोष मुक्त न हो जाये। संसद में इस आश्य का कानून पारित किये जाने की मांग की जानी चाहिये। इसी के साथ सोशल मीडिया के मंचो पर भी कड़ी नजर रखनी होगी क्योंकि इस समय दर्जनों साईटस ऐसी आप्रेट कर रही हैं जो यौनाचार को व्यवसाय की तरह परोस और प्रमोट कर रही हैंैै। इनके विडियो मोबाईल फोन पर उपलब्ध रहते हैं और इसका प्रभाव/परिणाम इस तरह के अपराधों के रूप में सामने आ रहा है। यदि सोशल मीडिया में बढ़ते इस तरह के पोस्टो पर ही प्रतिबन्ध लगा रहे हों तो निश्चित रूप से इन अपराधों में कभी आयेगी।