कोरोना का प्रकोप लगातार बड़ता जा रहा है क्योंकि इसका कोई प्रमाणिक ईलाज अब तक सामने नहीं आ पाया है। संक्रमण से यह बिमारी फैलती है यही पुख्यता जानकारी अब तक उपलब्ध है। इसलिये संक्रमण को कम करने के लिये (संगरो़धन) एक दूसरे से संपर्क में दूरी बनाये रखना ही सबसे बड़ा बचाव का उपाय रह गया है। शब्दकोष में संगरोधन का समय चालीस दिन कहा गया है। शायद इसी कारण से पहले 21 दिन की तालाबन्दी लागू की गयी और उसमें कोई अन्तराल दिये बिना 19 दिन के लिये आगे बढ़ा दिया गया। अब इसमें 20 अप्रैल को स्थिति का आकलन करके इसमें कुछ राहत देने पर विचार किया जायेगा। लेकिन यह बिमारी संक्रमण से ही फैलती है इसको लेकर भी सवाल उठ खड़े हुए हैं। क्योंकि एक डाक्टर विश्वस्वरूप राय चौधरी का एक विडियो सोशल मिडिया के मंचों पर वायरल हुआ है जिसमें यह दावा किया गया है कि यह वायरस उस तरह का घातक नही है जिस तरह का प्रचार किया जा रहा है। डा चौधरी ने दावा किया है कि उन्होने इस संबन्ध में केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डा हर्षवर्धन से भी 5 अप्रैल को विस्तार से बात की है। डा चौधरी के दावे का किसी भी ओर से कोई खण्डन नही आया है। बल्कि विश्व स्वास्थ्य संगठन और स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के प्राफैसर जय भट्टाचार्य के आकलन भी इसी दावे की पुष्टि करते हैं। इस आकलन का अंग्रजी दैनिक टाईम्स आफ इण्डिया ने भी अपने 16 अप्रैल के संस्करण में प्रमुख्ता से जिक्र उठाया हुआ है। जो आंकड़े अब तक सामने आये हैं उनसे से भी कुछ अन्तः विरोध उभरे हैं। यह कहा गया है कि इसके 38.46% मामले वह है जो कभी किसी संक्रमित के संपर्क में आये ही नही है। न ही यह लोग कहीं बाहर गये हैं और ना ही कोई इनके पास आया है। यह भी आंकड़ा आया है कि मरने वाले अधिकतर वह लोग हैं जो अन्य बिमारियों से भी साथ ही पीड़ित थे। सामुदायिक संचरण के आकलन को भी गलती मान लिया गया है। इन आंकड़ो से यह स्पष्ट है कि अभी तक इसके फैलाव के कारणो पर भी एक राय नही बन पायी है। ऐसे में जब इसकी न तो कोई प्रमाणिक दवाई है और न ही फैलाव का कोई एक माध्यम ही चिन्हित हो पाया है तब यही इसका सबसे गंभीर पक्ष हो जाता है। क्योंकि तथ्य यह हैं कि जब पूर्ण तालाबन्दी घोषित की गयी थी तब देश में इसके केवल 550 मामले थे और नौ लोगों की मौत हो चुकी थी। आज इसके कुल मामलों की संख्या 14000 से उपर हो गयी है और मरने वालों का आंकड़ा भी 400 से उपर पहुंच चुका है।
दूसरी ओर जब से तालाबन्दी चल रही है तब से हर तरह की आर्थिक गतिविधि पर पूर्ण विराम लगा हुआ है। तालाबन्दी की घोषणा के साथ ही यह कह दिया गया था कि जो जहां है वह वहीं रूके। इसके कारण शहरों से लेकर गांव तक सभी प्रभावित हुए हैं। जो भी कामगार जहां भी जैसा भी काम कर रहा था उसका वह काम तुरन्त प्रभाव से बन्द हो गया। इसमें कामगारों को इतना समय नही मिल पाया कि वह अपने- अपने काम के स्थानों को छोड़ कर अपने गांव/शहरों में वापिस आ पाते जहां के वह स्थायी निवासी थे। जहां यह काम कर रह थे वहां इनके स्थायी निवास नही थे। न ही अब तक ऐसी कोई व्यवस्था ही है कि हर छोटे-बड़े उद्योगपति या दुकानदार जिसके पास भी एक-दो-चार स्थायी/अस्थायी काम करने वाले लोग हों उसे उनके आवास की सुविधा प्रदान करना भी अनिवार्यता हो। फिर जो लोग दैनिक आधार पर मज़दूरी आदि करके अपना गुज़ारा कर रहे थे उनका जब सारा रोज़गार ही बन्द हो गया तब उनके लिये तो दो वक्त का भोजन जुटाना भी कठिन हो गया है। इस तरह जो कुल लोग प्रभावित हुए हैं शायद उनमे से तो आधे लोग सरकारी आंकड़ो की गिनती में ही न हो। इनमें से अधिकांश ऐसे भी होंगे जिनके राशन कार्ड तक नही बने हैं। तालाबन्दी से सबसे ज्यादा प्रभावित यही वर्ग है जिसके पास आज खाने और रहने की कोई व्यवस्था नही है। ऊपर से जिस तरह की यह बिमारी है प्रचारित हो गई है उससे हर व्यक्ति मनौवैज्ञानिक तौर पर आशंकित और आतंकित हो गया है। संबद्ध प्रशासन हर व्यक्ति को आशंका की नज़र से देख रहा है।
ऐसी वस्तुस्थिति में जो महत्वपूर्ण सवाल आज खड़े हो गये हैं उनमें सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या आर्थिक गतिविधियों की पूर्ण तालाबन्दी आवश्यक है? तालाबन्दी से करोड़ों लोग प्रभावित हुए हैं। करोड़ो ऐसे है जो अपनो और अपने स्थायी निवासों से एकदम पूरी तरह बेरोज़गार होकर बाहर बैठे हैं। यह लोग ऐसी बेकारी की हालत में अपने घरों को वापिस लौटना चाहते हैं। जब तालाबन्दी का पहला चरण 14 अप्रैल को खत्म हो रहा था तब उसके पहले प्रधानमन्त्री ने राज्यों के मुख्यमन्त्रीयों और अपने सहयोगियों से वस्तुस्थिति पर विचार विमर्श किया था। इस विमर्श के बाद यह सामने आया था कि शायद 14 के बाद रेल और हवाई यात्रा बहाल हो जाये। रेलवे और एयर कंपनीयों ने कई जगह टिकट बुक करने भी शुरू कर दिये थे। अब इन टिकटों को रद्द करके यह पैसा वापिस किया जा रहा है। रेलवे ने शायद 39 लाख टिकट बुक कर लिये थे। इस टिकट बुकिंग के कारण ही शायद बांद्रा और सूरत में यह मज़दूर लोग हजारों की संख्या में बाहर आ गये थे। मज़दूरों के बाहर आने पर जिस तरह का आचरण सरकार की ओर से सामने आया है उसमें रेलवे के उस पत्र को नज़रअन्दाज करना जिसमें प्रस्तावित यात्रा के बहाल होने का जिक्र किया गया था। इससे सरकार और प्रशासन की समझ पर गंभीर सवाल खड़े होते है। क्योंकि मज़दूरों के बाहर निकलने को बान्द्रा में जिस तरह से मीडिया के एक वर्ग ने मस्जिद के साथ जोड़ने का प्रयास किया और सूरत की घटना को एकदम नज़रअन्दाज किया उससे मीडिया की भूमिका के साथ ही सरकार की कार्यशैली पर भी गंभीर सवाल उठते हैं।
दूसरा बड़ा सवाल उठता है कि आर्थिक गतिविधियों को बन्द रखना कहां तक उचित है। देश आर्थिक संकट से गुज़र रहा है यह तभी सामने आ गया था जब सरकार को आरबीआई से 1.76 लाख करोड़ का रिजर्व लेना पड़ा था। उसके बाद दो बैंक फेल हो गये और यस बैंक को आरबीआई ने 70 हजार करोड़ का ऋण दिया। अब जब तालाबन्दी लागू की गई और सरकार ने 1.70 लाख करोड़ का राहत पैकेज दिया तब उसके बाद हर तरह के छोटे बड़े जमा पर ब्याज दरें घटा दी गयी। यह ब्याज दरें घटाने के बाद केन्द्र से लेकर राज्यों तक ने माननीयों के वेत्तन भत्तों में 30% की कटौती की। क्षेत्र विकास निधि भी दो वर्षों के लिये बन्द कर दी। कई राज्यों ने तो अपने कर्मचारियों के वेत्तन और पैन्शन में कटौती कर दी है। अब फिर रिजर्व बैंक ने पचास हजार करोड़ का निवेश करके बाजार को उभारने का फैसला लिया है। लेकिन जिस तरह से आर्थिक कार्यों पर विराम चला हुआ है उससे तो अन्ततः आर्थिक विकास दर शून्य से भी नीचे आने की संभावना खड़ी हो गयी है। करोड़ो लोग बेकार होकर घर बैठने को विवश हो गये हैं क्योंकि यह अभी तक अस्पष्ट है कि आर्थिक गतिविधियां कब और कितनी बाहाल हो पायेगी। यह तह है कि अगर लम्बे समय तक यह सब चलता रहा तो हालात बहुत ही कठिन हो जायेंगे। ऐसे में बिमारी के परहेज के साथ-साथ ही आर्थिक गतिविधियों को शुरू करना आवश्यक हो जाता है अन्यथा भूख और बिमारी अगर दोनों एक साथ खड़े हो गये तो संकट और भी गहरा हो जायेगा।