केन्द्रिय वित्त मंत्री श्रीमति सीता रमण ने संसद में वर्ष 2020-21 का बजट प्रस्ताव रखते हुए यह कहा है कि मई 2019 में देश की जनता ने मोदी सरकार को जो भारी जनादेश दिया है वह केवल राजनीतिक स्थिरता के लिये ही नही दिया है बल्कि इसके माध्यम से सरकार की आर्थिक नीतियों में भी विश्वास व्यक्त किया है। देश की जनता जब भी किसी सरकार का चयन करती है तो इसी अपेक्षा के साथ करती है कि यह सरकार राजनीतिक स्थिरता और आर्थिक समृद्धि सुनिश्चित करे। 2014 मे भी यही विश्वास व्यक्त किया था क्योंकि तब सरकार ने विदेशों में जमा देश के कालेधन को वापिस लाकर हर आदमी के खाते में पन्द्रह लाख आ जाने का वायदा किया था। नवम्बर 2016 में जब नोटबंदी लागू की गयी थी तब भी यह कहा गया था कि इससे आतंकवाद और कालेधन पर अंकुश लगेगा। लेकिन नोटबंदी के माध्यम से कितना कालाधन पकड़ा गया या स्वतः ही खत्म हो गया यह आंकड़ा अभी तक देश की जनता के सामने नही आया है। बल्कि यह हुआ कि सरकार को आरबीआई से सुरक्षित धन लेना पड़ा। नोटबंदी से जो उद्योग प्रभावित हुए उन्हें पुनः मुख्य धारा में लाने के लिये विशेष सहायता पैकेज दिये गये। लेकिन यह पैकेज देने से सही में कितना लाभ हुआ और कितना रोज़गार बढ़ा इसका भी कोई आंकड़ा सामने नहीं आया है। उल्टे यह सामने आया कि इसके बाद मंहगाई और बेरोज़गारी दोनो बढ गयी। प्याज़ की कीमतें इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। यह चर्चा इसलिये उठा रहा हूं क्योंकि चुनावी चर्चाओं से यदि कोई चीज़ गायब रहती है तो वह केवल सरकार की आर्थिक नीतियां ही होती हैं क्योंकि राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणा पत्र/ संकल्प पत्र उस समय जनता में जारी करते हैं जब जनता भावनात्मक मुद्दों के गिई पूरी तरह केन्द्रित हो चुकी होती है। उसके पास राष्ट्र भक्ति और हिन्दु -मुस्लिम, मन्दिर-मस्जिद जैसे मुद्दे पूरी तरह अपना असर कर चुके होते हैं। इसलिये जनादेश को आर्थिक नीतियां पर मोहर मान लेना सही नही होगा।
केन्द्र सरकार के वर्ष 2019-20 के बजट में यह कहा गया था कि इस वर्ष सरकार की कुल राजस्व आय 27,86,349 करोड़ रहेगी लेकिन संशोधित अनुमानों में इसे घटाकर 26,98,522 करोड़ पर लाया गया है। यही स्थिति खर्च में भी रही है। बजट अनुमानों के मुताबिक कुल 27,86,349 करोड़ माना गया था जिसे संशोधित करके 26,98,522 करोड़ पर लाया गया है इसके परिणामस्वरूप जो घाटा 4,85019 करोड़ आंका गया था वह संशोधित में 4,99,544 करोड़ हो गया है। वर्ष 2019-20 के इन बजट आंकड़ों से यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार के आय, व्यय और घाटे के सारे आकलन और अनुमान जमीनी हकीकत पर पूरे नही उतर पाये हैं। इसी गणित में जो आंकड़े वित्तिय वर्ष 2020-21 के लिये दिये गये हैं जिनमें कुल 3042230 करोड़ का आय और व्यय दिखाया गया है वह कितना सही उतर पायेगा यह विश्वास करना कठिन हो जाता है। इस वस्तुस्थिति में जनता को वायदों और ब्यानों के मायाजाल में उलझाये रखने के अतिरिक्त तन्त्र के पास कुछ शेष नही रह जाता है। आज अगले वित्त वर्ष में सरकार ने दो लाख करोड़ से अधिक के विनिवेश का लक्ष्य रखा है जो पिछले वर्ष एक लाख करोड़ था। स्वभाविक है कि विनिवेश में सरकारी उपक्रमों को निजिक्षेत्र को दिया जायेगा। इसमें भारत पैट्रोलियम, एलआईसी, बीएसएनएल, आईटीबीआई, एयर इण्डिया और इण्डियन रेलवे जैसे उपक्रम सूचीबद्ध कर लिये गये हैं। अभी बीएसएनएल में करीब 93000 कर्मचारियों को इकट्ठे सेवानिवृति दी गयी है क्योंकि उसे नीजिक्षेत्र को सौंपना है। ऐसा ही अन्य उपक्रमों में भी होगा। नीजिक्षेत्र में जाने की प्रक्रिया का पहला असर वहां काम कर रहे कर्मचारियों पर होता है। क्योंकि सरकार की नीति लाभ से ज्यादा रोज़गार देने पर होती है जबकि नीतिक्षेत्र में लाभ कमाना ही मुख्य उद्देश्य होता है रोजगार देना नहीं। स्वभाविक है कि जब नीजिकरण की यह प्रक्रिया चलेगी तो इससे रोज़गार के अवसर कम होंगे जिसका सीधा असर देश के युवा पर पडे़गा और वह कल सरकार की नीतियों के विरोध में सड़क पर आने के लिये विवश हो जायेगा।
आर्थिक मुहाने पर ऐसे बहुत सारे बिन्दु हैं जहां सरकार की आर्थिक नीतियों /फैसलों पर खुले मन से सार्वजनिक चर्चा की आवश्यकता है। अभी सरकार नै बैंकों में आम आदमी के जमा पैसे की इन्शयोरैन्स की राशी एक लाख से बढ़ा कर पांच लाख की है। पहले केवल एक लाख ही बैंक में सुरक्षित रहता था जो अब पांच लाख हो गया है। यह स्वागत योग्य कदम है लेकिन इसी के साथ बैंकों को रैगुलेट करने के लिये आरबीआई से हटकर जो अथाॅरिटी बनाने की बात वित्त मन्त्री ने की है उसके तहत बैंक का घाटा उस बैंक में जमा बचत खातों से पूरा करने का जो प्रावधान किये जाने की बात है क्या उस पर सर्वाजनिक चर्चा की आवश्यकता नही है। वित्त मन्त्री ने कहा है कि इस संबंध में शीघ्र ही विधेयक लाया जायेगा। इस समय सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एनपीए लाखों करोड़ हो चुका है। बहुत सारे कर्जधारक देश छोड़कर विदेशों में जा बैठे हैं उनसे पैसा वसूलने और उन्हें वापिस लाने की प्रक्रियाएं चल रही हैं जिनका कोई परिणाम सामने नही आया है और इस पर कोई सार्वजनिक बहस भी उठाने नहीं दी जा रही है। बल्कि यह आरोप लग रहा है कि आर्थिक असफलताओं पर बहस को रोकने के लिये ही एनआरसी, एनपीआर और सीएए जैसे मुद्दे लाये गये हैं। ऐसे में यह स्पष्ट है कि जब इन मुद्दों के साथ आर्थिक असफलता जुड़ जायेगी तो उसके परिणाम बहुत ही घातक होंगे।