अभी हुए दो राज्यों के विधान सभा चुनावों में हरियाणा में भाजपा को जनता ने सरकार बनाने लायक बहुमत नही दिया है। महाराष्ट्र में भी 2014 से कम सीटें मिली हैं। अनय राज्यों में भी जहां जहां उप चुनाव हुए हैं वहां पर अधिकांष में सतारूढ़ सरकारों कें पक्ष में ही लोगों ने मतदान किया हैं । यह चुनाव पांच माह पहले हुये लोकसभा चुनावों के बाद हुए हैं और इनके परिणाम उनसे पूरी तरह उल्ट आये हैं। क्योंकि लोकसभा में हरियाणा की सभी दस सीटों पर भाजपा ने जीत हासिल की थी और इसी जीत के दम पर विधान सभा चुनावों में 90 में से कम से कम 75 सीटे जीतने का लक्ष्य घोषित किया था। अंबानी और अदानी की मलकीयत वाला मीडिया तो हरियाणा में कांग्रेस को चार पांच और महाराष्ट्र में आठ से दस सीटें दे रहा था। इसी मीडिया के प्रभाव में अधिकांश सोशल मीडिया भी इसी तरह के आकलन परोसने लग गया था। ऐसा शायद इसलिये था कि लोकसभा चुनावों में विपक्ष को ऐसा अप्रत्याशित हार मिली थी जिसका किसी को भी अनुमान नही था। इस हार से विपक्ष एक तरह से मनोवैज्ञानिक तौर पर ही हताशा में चला गया था। एक बार फिर विपक्षी दलों के लोग पासे बदलने लग गये थे। इसी के साथ ईडी और सीबीआई की सक्रियता भी बढ़ गई कई महत्वपूर्ण नेताओं को जेल के दरवाजे दिखा दिये गये। कुल मिलाकर नयी स्थिति यह उभरती चली गई कि भाजपा अब कांग्रेस मुक्त नही बल्कि विपक्ष मुक्त भारत का सपना देखने लग गई थी । विपक्ष की एकजुटता की संभावनाएं पूरी तरह ध्वस्त हो गई थी। कांग्रेस में राहूल गांधी एक तरह से हार के बाद अकेले पड़ गये थे क्योंकि हार कि जिम्मेदारी लेने के लिये पार्टी का कोई भी बड़ा नेता उनके साथ खड़े नही हुआ। राहूल को अकेले ही यह जिम्मेदारी लेनी पड़ी और त्याग पत्र देना पड़ा। इस त्याग पत्र के बाद कांग्रेस के ही कई नेता अपरोक्ष में उनके खिलाफ मुखर होने लग गये थे। अन्य विपक्षी दल तो एकदम पूरे सीन से ही गायब हो गये थे। भाजपा संघ को कोई चुनौती देने वाला नजर नही आ रहा था।
भाजपा ने इसी परिदृश्य का लाभ उठाते हुये तीन तलाक विधेयक को फिर से संसद में लाकर पारित करवा लिया। इसके बाद जम्मू- कश्मीर से धारा 370 और 35 A को हटाकर जम्मू- कश्मीर को दो केन्द्र शासित राज्यों में बांट दिया। पूरी घाटी में हर तरह के नीगरिक प्रतिबन्ध लगा दिये गये। पूरा प्रदेश एक तरह से सैनिक शासन के हवाले कर दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने भी नागरिक अधिकारों के हनन को लेकर आयी याचिकाओं पर तत्काल प्रभाव से सुनवाई करने से इन्कार कर दिया। जिन बुद्धिजीवियों ने भीड़ हिसां के खिलाफ राष्ट्रपति को सामूहिक पत्र लिखकर अपना विरोध प्रकट किया था उनक खिलाफ पटना में एक अदालत के आदेशों पर एफ आई आर तक दर्ज कर दी गयी। इससे सार्वजनिक भय का वातावरण और बढ़ गया। नवलखा के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के करीब आधा दर्जन न्यायाधीशों द्वारा मामले की सुनवाई से अपने को अलग करना न्यायपालिका की भूमिका पर अलग से सवाल खड़े करता है। धारा 370 हटाने पर विश्व समुदाय के अधिकांश देशों द्वारा समर्थन का दावा इसी का परिचायक था कि ‘‘ King does no Wrong ’’ स्वभाविक है कि जब इस तरह के एक पक्षीय राजनीतिक वातावरण में कोई चुनाव आ जाये तो उनके परिणाम भी एकतरफा ही रहने का दावा करना कोई आश्चर्यजनक नही लगेगा।
ऐसे राजनीतिक परिदृश्य क बाद भी यदि जनता हरियाणा जैसे जनादेश दे तो यह अपने में एक महत्वपूर्ण चिन्तन का विषय बन जाता है। जब सब कुछ सता पक्ष क पक्ष में जा रहा था तो ऐसा क्या घट गया कि जनता विपक्ष के अभाव में भी ऐसा जनादेश देने पर आ गई। इसकी अगर तलाश की जाये तो यह सामने आता हैं कि राजनीतिक फैसलों का मुखौटा ओढ़कर जो आर्थिक फैसले लिये वह जनता पर भारी पड़ गये। जो सरकार चुनाव की पूर्व सन्धया पर किसानों को छः छः हजार प्रतिवर्ष देकर लुभा रही थी उसे सरकार बनते ही रिजर्व बैंक से 1.76 लाख करोड़ लेना पडा इसके बाद 1.45 लाख करोड़ का राहत पैकेज कारपोरेट जगत को देना पड़ा और इसक बावजूद भी आर्थिक मन्दी में कोई सुधार नही आ पाया। आटोमोबाईल और टैक्सटाईल क्षेत्रों में कामगारों की छटनी नही रूक पायी उनके उतपादो की बिक्री नही बढ़ पायी। रेलवे बी एस एन एल और एम टी एन एल मे विनिवेश की घोषणाओं से रोजगार के संकट उभरने के संकेतो से एकदम महंगाई का बढ़ना आम आदमी क लिये काफी था। उसे इतनी बात तो समझ आ ही जाती है कि मंहगाई और बेरोजगारी पर नियन्त्रण रखना हमेशा समय का सतारूढ़ सरकार का दायित्व होता है। जिसमें यह सरकार लगातार असफल होती जा रही है। आर्थिक क्षेत्र की असफलताओं का ढकने के लिये जब प्रधानमंत्री ने विधान सभा चुनावों में विपक्ष को यह कह कर चुनौति दी कि यदि उसमें साहस है तो वह 370 का फिर लागू करने का दावा करे। इन विधान समभा चुनावों में धारा 370 विपक्ष का कोई मुद्दा ही नही था क्योंकि इसका चुनावों के साथ कोई सीधा संबंध ही नही था। लेकिन प्रधानमंत्री का विपक्ष को इस मुद्दे पर लाने का प्रयास करना ही यह स्पष्ट करता है कि सता पक्ष के पास अब ऐसा कुछ नही बचा है जो आर्थिक मन्दी पर भारी पड़ जाये । क्योंकि सारे धर्म स्थलों को भी यदि राम मन्दिर बना दिया जाये और सारे गैर हिन्दु भी यदि हिन्दु बन जाये तो भी बेरोजगारी और मंहगाई से जनता को निजात नही मिल पायेगी। क्योंकि 3000 करोड़ खर्च करके पटेल की प्रतिमा स्थापित करने से यह समस्याएं हल नही हो सकती यह तह है।
इस परिदृश्य में यह स्पष्ट हो जाता है कि आज के आर्थिक परिवेश ने हर आदमी को हिलाकर रख दिया है। आम आदमी जान चुका है कि कल तक स्वदेशी जागरण मंच खडा करके एफ डी आई का विरोध करने वाला सता पक्ष जब रक्षा जैसे क्षेत्र में एफ डी आई को न्योता दे चुका है तो यह प्रमाणित हो जाता है कि यह सब उसकी राजनीतिक चालबाजी से अधिक कुछ नही था। जंहा वैचारिक विरोध को देशद्रोह की संज्ञा दी जायेगी तो ऐसी राजनीतिक मान्यताएं ज्यादा देर तक टिकी नही रह सकती हैं। आज देश की सबसे बड़ी प्रशासनिक सेवा के अधिकारी भी इस तरह के मुद्दों पर मुखर होने लग गये हैं और केन्द्र सरकार से उन अधिकारियों को केंन्द्र से वापिस राज्यों में भेजना शुरू कर दिया है जो आंख बन्द करके उसकी हां में हां मिलाने को तैयार नही है। आज विपक्ष को इन उभरते संकेतों को समझने और अपनी हताशा से बाहर निकलने की आवश्यकता है। क्योंकि पांच माह में ही इस तरह का खंडित जनादेश किसी भी गणित में सता के पक्ष में नही जाता है शायद इसीलिये प्रधानमंत्री को हरियाणा और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्रीयों के साथ खड़ा होना पड़ा है कि कहीं वह इस जनादेश का ठिकरा केन्द्र के सिर न फोड़ दें।