अनुच्छेद 370-सरकार की नीयत पर उठते सवाल

Created on Monday, 12 August 2019 10:08
Written by Shail Samachar

मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया है। अब अनुच्छेद 370 के समाप्त हो जाने के बाद प्रदेश को दो केन्द्र शासित राज्यों में पुर्नगठित कर दिया गया है जिसमें जम्मू-कश्मीर में तो विधानसभा होगी परन्तु लद्दाख कारगिल में नही। सरकार ने यह फैसला लेने का सबसे बड़ा कारण वहां फैला आतंकवाद और अलगावाद बताया है। सरकार के मुताबिक पुरानी व्यवस्था के तहत राज्य का विकास पूरी तरह रूक गया था जिसके कारण राज्य में बेरोजगारी और भ्रष्टाचार भी बढ़ गया था। सरकार ने जो कारण गिनाये हैं हो सकता है कि वह पूरी तरह सही हो। क्योंकि 2014 से केन्द्र में भाजपा की सरकार चली आ रही है और जम्मू-कश्मीर में भी महबूबा मुफ्रती की पीडीपी के साथ सरकार बनाई। संभव है कि इस दौरान जो सूचनाएं उसके पास आयी हों उनके आधार पर सरकार का आकलन सही हो। लेकिन अनुच्छेद 370 हटाने के लिये केन्द्र सरकार को राज्य में लोगों के नागरिक अधिकारों को कुछ समय के लिये स्थगित करना पड़ा है। वहां के गैर भाजपा राजनीतिक नेतृत्व को हिरासत में लेना पड़ा है। प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्रियों को नजरबन्द करना पड़ा है। कांग्रेस नेता गुलाम नवी आजाद और वाम नेता सीता राम येचूरी और डी राजा को प्रशासन ने श्रीनगर नही जाने दिया उन्हे एयरपोर्ट से ही वापिस कर दिया गया। पूरी घाटी मे दूर संचार व्यवस्था बन्द रखी गयी है।
स्रकार के इन कदमों से यह स्वभाविक सवाल उठता है कि यदि अनुच्छेद 370 को हटाना राज्य के हित में है तो ऐसा करने से पहले सरकार वहां के राजनीतिक नेतृत्व और जनता को विश्वास में क्यों नही ले पायी? सरकार को ऐसा क्यों लगा कि भाजपा के अतिरिक्त कोई भी दूसरा इसमें सरकार पर विश्वास नही करेगा? ऐसा क्यों लगा कि भाजपा के अतिरिक्त दूसरे लोग राष्ट्रहित को नही समझते हैं। जबकि संसद में उन दलों के लोगों ने भी जो एनडीए के सहयोगी नही है ने भी समर्थन दिया है। इसी के साथ यह भी सच्च है कि एनडीए के सहयोगी जेडीयू ने इसका विरोध किया है। इस विरोध और समर्थन से यही स्पष्ट होता है कि या तो इस विषय को भाजपा सहित सभी अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थ के आईने से देख रहे हैं या फिर इसमें गंभीर वैचारिक मतभेद हैं। इन दोनों ही स्थितियों में इस विषय पर एक खुली सार्वजनिक बहस की आवश्यकता है क्योंकि राष्ट्र हित को परिभाषित करना किसी एक ही राजनीतिक दल का एकाधिकार नही रह जाता है चाहे वह सत्ताधारी दल ही क्यों न हो। फिर दुर्भाग्य से भाजपा की छवि लगातार मुस्लिम विरोधी बनती जा रही है और अब तो यह लगने लगा है कि शायद भाजपा एक सुनियोजित योजना के तहत इस छवि को बढ़ाती जा रही है। यह ध्रुवीकरण कालान्तर में लोकतन्त्र के लिये घातक सिद्ध होगा यह तय है।
भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनावों में किसी भी मुस्लिम को अपनी पार्टी से चुनाव उम्मीदवार नही बनाया है। 2014 के लोकसभा चुनावों से शुरू हुई यह स्थिति आज 2019 के लोकसभा चुनावों में भी यथास्थिति ही रही है। जो दल सबसे बड़ी सदस्यता वाला दल होने का दावा करे और उस दल में देश की दूसरी बड़ी जनसंख्या में से कोई भी ऐसा व्यक्ति न मिल पाये लोकसभा की चुनावी भागीदारी का हिस्सेदार न बनाया जा सके तो सामान्यतः यह किसी के भी गले नही उतरेगा। बल्कि हर कोई इसे जातिय और धार्मिक ध्रुवीकरण की ओर बढ़ता कदम ही करार देगा और इस परिदृश्य में आज सरकार की नीयत पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। क्योंकि जहां अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को कुछ विशेष अधिकार हासिल थे वैसे ही कुछ अधिकार अन्य दस राज्यों को भी अनुच्छेद 371 के तहत हालिस हैं। अब 371 के प्रावधानों को भी हटाने की चर्चा देश के उन राज्यों में उठना स्वभाविक है। संविधान के शैडयूल पांच में कुछ राज्यों के लिये विशेष प्रावधान हैं। देश के सभी राज्यों के 284 कानून संविधान के शैडयूल नौ में आते हैं। इनके खिलाफ देर सवेर आवाज उठना स्वभाविक है। हिमाचल के भूसुधार अधिनियम की धारा 118 को हटाने की मांग दिल्ली से लेकर शिमला तक स्वर लेने लगी है। स्वभाविक है कि जब धारा 370 को समाप्त किया जा सकता है तो फिर अन्य धाराओं के ऐसे ही प्रावधानों को समाप्त क्यों नही किया जा सकता। आने वाले दिनों में यह एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरेगा।
अनुच्छेद 370 को हटाने वाले राष्ट्रपति के आदेशों को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा चुकी है और शीर्ष अदालत ने इसे लंबित रख दिया है। इस परिदृश्य में यह समझना आवश्यक हो जाता है कि अनुच्छेद 370 और 35 A है क्या। 35 A की लम्बे अरसे से शीर्ष अदालत में चुनौती मिली हुई है और वहां यह मुद्दा लंबित चला आ रहा है क्योंकि केन्द्र ने इस पर कोई जवाब दायर नही किया है। स्मरणीय है कि 15 अगस्त 1947 को देश की आज़ादी के समय जम्मू-कश्मीर एक स्वायत और सार्वभौमिक राज्य था जिसने 26 अक्तूबर 1947 को भारत में विलय किया। लेकिन यह विलय विदेशी मामलों, दूर संचार और रक्षा के मामलों में ही था। अन्य मामलों में केन्द्र का कोई भी कानून वहां के शासक की पूर्व अनुमति के बिना लागू नही होगा। इस तरह जम्मू-कश्मीर की संप्रभता अपनी जगह बनी रही क्योंकि यह अन्य राज्यों की तर्ज पर नही था और इसी को सुनिश्चित करने के लिये संविधान में धारा 370 का प्रवधान किया गया था। इस व्यवस्था को सुप्रीम कोर्ट के ग्यारह जजों की पीठ ने 1971 में माधव राव मामले में माना है। 1952 के दिल्ली समझौते के बाद 370 के प्रावधानों को और पुख्ता करने के लिये 35 A जोड़ा गया था। 2015 में जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में आये मुबारिक शाह नक्शबन्दी मामले में अदालत ने यह कहा कि  In Jammu and Kashmir, the immovable property of a State subject/citizen, cannot be permitted to be transferred to a non State subject. This legal and constitutional protection is inherent in the State subjects of the State of Jammu and Kashmir and this fundamental and basic inherent right cannot be taken away in view of peculiar and special constitutional position occupied by State of Jammu and Kashmir. Article 35-A is clarificatory provision to clear the issue of constitutional position obtaining in rest of country in contrast to State of Jammu and Kashmir. This provision clears the constitutional relationship between people of rest of country with people of Jammu and Kashmir'

यही नही केन्द्र और जम्मू-कश्मीर के संबंधों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने 1959 में प्रेम नाथ कौल मामले में भी ऐसी ही व्याख्या की है। इस तरह जहां तक केन्द्र सरकार द्वारा इस मामले में अपनाई गयी प्रक्रिया का सवाल उस परअब तक जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय में आये विभिन्न मामलों में अदालत की जो व्याख्या रही है उसके मुताबिक केन्द्र की नीयत पर गंभीर सवाल उठते हैं। आज इस मामले में शीर्ष अदालत जो भी व्याख्या करेगी उसके परिणाम दूरगामी होंगे। क्योंकि जो राजनीतिक परिदृश्य आज बना हुआ है यह आवश्यक नही है कि वही अब स्थायी बना रहेगा। केन्द्र के इस कदम ने शीर्ष न्यायपालिका के लिये भी एक परीक्षा की स्थिति पैदा कर दी है।