क्या दलबदल से भाजपा कांग्रेस मुक्त करायेगी देश को

Created on Tuesday, 16 July 2019 12:07
Written by Shail Samachar

लोकसभा चुनावों में मिली अप्रत्याशित हार के बाद विपक्ष में टूटन शुरू हो गयी है। टीडीपी के चारों राज्यसभा सांसद भाजपा में शामिल हो गये हैं। टीडीपी के बाद आई एन एल डी का सांसद भी भाजपा में चला गया है। इन सांसदों के बाद गोवा के दस कांग्रेस विधायक भाजपा में शामिल हो गये। उनमें से तीन मन्त्री भी बन गये हैं। कर्नाटक में जेडीएस और कांग्रेस के विधायकों ने त्यागपत्र देकर गठनबन्धन सरकार के लिये संकट पैदा कर दिया है। कर्नाटक प्रकरण सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच चुका है। प्रधान न्यायधीश की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ के बाद अब यह मामला पांच जजों की पीठ को सौंपा गया है। देश की शीर्ष अदालत में इस प्रकरण के आने के बाद यह स्पष्ट हो जायेगा कि हमारा दल बदल विरोधी कानून कितना सक्ष्म है। इसमें कांग्रेस या भाजपा जिसकी भी जीत हो उससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि इसमें जनमत की हार निश्चित है। कर्नाटक प्रकरण में भाजपा अपना हाथ होने से इन्कार कर रही लेकिन भाजपा नेतृत्व वहां मेन केन प्रकारेण सरकार बनाने के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार है। गोवा और कर्नाटक के प्रकरण कब बंगाल, मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में दोहरा दिये जायें यह अब सामान्य लग रहा है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने बंगाल को लेकर तो अपने इरादे लोकसभा चुनावों में ही जाहिर कर दिये थे और वहां वैसा ही घटता भी जा रहा है।
यह जो कुछ हो रहा है इससे सबसे पहला सवाल यह उभरता है कि इस तरह के राजनीतिक जन प्रतिनिधियों के सहारे देश का लोकतन्त्र कैसे कितनी देर जिंदा रहेगा। दूसरा सवाल शीर्ष न्यायपालिका को लेकर उठता है कि वहां सार्वजनिक महत्व के मुद्दों को कितनी देर तक लटकाये रखा जायेगा। इस समय दो महत्वपूर्ण  मुद्दे लंबित चल रहे हैं एक में बीस लाख ईवीएम मशीनों के गायब होने का मामला है। सवाल स्पष्ट है कि या तो मशीने गायब होने का आरोप सच है या निराधार है। अदालत में यह मामला आरटीआई के तहत मिली सूचना पर आधारित है। यदि मशीने गायब होने का आरोप सही साबित हो जाता है तो फिर पूरी चुनाव प्रक्रिया पर उठने वाले सवालों पर बात आयेगी और उसके परिणाम दूरगामी होंगे। लेकिन इससे दलों की हार जीत से अलग लोकतन्त्र की जो जीत होगी वह महत्वपूर्ण है। अदालत में एक याचिका लोकसभा चुनावों की पूर्व संध्या पर केन्द्र और कुछ राज्यों द्वारा जो जनता के कुछ वर्गों को वित्तिय लाभ देने के लिये जो योजनाएं घोषित की गयी तथा उनके तहत यह वित्तिय लाभ दिये भी गये इसे मतदाताओं को प्रलोभित करना माना जाये। एक अरसे से यह चलन बन गया है कि सरकारें चुनावों से पूर्व ऐसी योजनाओं के माध्यम से बड़े पैमाने पर सार्वजनिक रूप से घूसखोरी को अंजाम देती हैं और लोकतन्त्र फिर हार जाता है। आज यह मुद्दे याचिकाओं के माध्यम से उच्च न्यायपालिका के पास लंबित पड़े हैं और उन्हे कोई प्राथमिकता नही दी जा रही है। क्या ऐसे न्यायपालिका पर भी लम्बे समय तक विश्वास बना रह पायेगा।
आज जिस तरह से यह दलबदल घट रहा है उससे जहां जन प्रतिनिधियों की विश्वनीयता सवालों के घेरे में खड़ी हो गयी है। वहीं पर राजनीतिक दलों की विश्वनीयता पर भी सवाल उठ रहे हैं  गोवा में कांग्रेस के विधायकों को मन्त्रा बनाने के लिये दूसरे घटक के मन्त्रीयों को हटाना पड़ा उन्होने स्वेच्छा से अपने पद नही त्यागे। इससे स्पष्ट हो जाता है कि बड़े पैमाने पर सौदेबाजी को अंजाम दिया गया। यहां यह सवाल उठता है कि क्या भाजपा को यह सब करने की आवश्यकता थी? जो पार्टी अभी इतना बड़ा जन विश्वास लेकर सता में आयी है क्या उसके ऐसे आचरण से पापुलर जनमत हासिल करने के दावों पर स्वतः ही प्रश्नचिन्ह नही लग जाता है। क्या भाजपा कर्नाटक प्रकरण का पटाक्षेप होने से पहले यह घोषणा करने का दम रखती है कि वह दलबदल से सरकार नही बनायेगी और राज्य में चुनाव करवायेगी। भाजपा में यह दम नही है क्योंकि इसी कर्नाटक लोकसभा चुनावां के मतदान के बाद मतगणना से पहले हुए निकाय चुनावों में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा है। क्या इस तरह के राजनीतिक आरचण से भाजपा का अपना ही पक्ष कमजोर नही हो रहा है।