चुनाव आयोग की भूमिका पर उठते सवाल

Created on Tuesday, 21 May 2019 06:11
Written by Shail Samachar

निष्पक्ष और स्वतन्त्र चुनाव करवाने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की है। यह जिम्मेदारी निभाने के लिये चुनावों की घोषणा के साथ ही पूरा प्रशासनिक तन्त्र आयोग के नियन्त्रण में आ जाता है यह व्यवस्था की गयी है। चुनावों की घोषणा के साथ ही आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू हो जाती है और यह संहिता लागू होने के बाद सामान्य प्रशासनिक कार्यों को छोड़कर हर बड़े फैसले के लिये चुनाव आयोग से अनुमति लेनी पड़ती है। चुनावों के दौरान क्या-क्या आचार संहिता के दायरे में आता है और इस संहिता की उल्लंघना के लिये क्या-क्या प्रतिबन्धात्मक कदम आयोग उठा सकता है यह पूरी तरह परिभाषित हैं। चुनावों के दौरान आयोग की प्रशासनिक शक्तियां सर्वोच्च हो जाती हैं। चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है उस पर सरकार का कोई नियन्त्राण नहीं होता है। आयोग को सरकारी नियन्त्रण से बाहर इसलिये रखा गया है ताकि उसकी निष्पक्षता पर कोई आंच न आये।
लेकिन क्या इस बार चुनाव आयोग यह भूमिका निष्पक्षता से निभा पाया है। यह सवाल चुनावों के अन्तिम चरण तक आते-आते एक बड़ा सवाल बन कर देश के सामने खड़ा हो गया है। यह स्थिति बंगाल में हुई चुनावी हिंसा के बाद एक बड़ा मुद्दा बन गयी है। चुनाव आयोग के पास आचार संहिता के उल्लंघन की शिकायतें चुनाव प्रक्रिया के शुरू होने के साथ ही आनी शुरू हो गयी थी। लेकिन आयोग ने इन शिकायतों की ओर तब तक उचित ध्यान नही दिया जब तक सर्वोच्च न्यायालय से एक तरह की प्रताड़ना उसे नही मिल गयी। इस प्रताड़ना के बाद आयोग ने कुछ नेताओं के चुनाव प्रचार पर कुछ समय के लिये प्रतिबन्ध लगाया। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भाजपा अध्यक्ष अमितशाह और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को लेकर आयी शिकायतों पर तब तक कुछ नही किया जब तक इस संर्भ में भी सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाएं नही आ गयी। यह याचिकाएं आने के बाद जब शीर्ष अदालत ने इस पर तीन दिन में फैसला लेने के निर्देश दिये तब इन लोगों को क्लीनचिट मिल गयी। इस क्लीनचिट को लेकर सवाल उठे हैं जिनका कोई जवाब नही आया है।
चुनाव आयोग ईवीएम मशीनों से चुनाव करवा रहा है। ईवीएम मशीनों की विश्वसनीयता को लेकर एक लम्बे समय से सवाल उठते आ रहे हैं। देश के कई राज्यों के उच्च न्यायालयों में इस संद्धर्भ में याचिकाएं दायर हुई है। ईवीएम जब केरल विधानसभा के 1982 के चुनावों में एक विधानसभा हल्के में इस्तेमाल हुई थी तब इस पर उच्च न्यायालय में याचिका आ गयी थी। जब यह याचिका 1984 में सर्वोच्च न्यायालय में पंहुची थी तब शीर्ष अदालत ने इसके इस्तेमाल पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। उसके बाद 1998 में जब संसद में इस पर चर्चा हुई तब ईवीएम का चुनावों में उपयोग शुरू हुआ। लेकिन इसकी विश्वसनीयता को लेकर सवाल उठते रहे। जब भाजपा नेता डा. स्वामी ने इस पर दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर की तब सारे मामले सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पास ले लिये और वीवीपैट की इसमें व्यवस्था जोड़ दी जो अब पूरी तरह लागू हुई है। लेकिन वीवीपैट को पूरी तरह प्रमाणिक बनाने के लिये जब इक्कीस राजनीतिक दलों ने इसमें 50ः मशीनों की पर्चीयों की गणना की मांग की और सर्वोच्च न्यायालय ने आयोग से इस बारे में जवाब मांगा तब आयोग ने यह कह दिया कि ऐसी गणना करने से चुनाव परिणाम में छः दिन की देरी हो सकती है। शीर्ष अदालत ने भी आयोग के जवाब को मानते हुए यह याचिका खारिज कर दी। क्या इससे जन विश्वास को धक्का नही लगा है? यदि चुनाव परिणामों की गणना में छः दिन का समय लगने से जन विश्वास जीता जा सकता था तो ऐसा क्यों नही किया गया? ईवीएम पर सन्देह करने का आधार तो चुनाव आयोग स्वयं दे रहा है। इससे जो स्थिति उभरती नजर आ रही है उससे यह स्पष्ट लग रहा है कि ईवीएम फिर बड़ा मुद्दा बनने जा रहा है।
चुनावों की प्रक्रिया शुरू होने से लेकर अन्त तक चुनाव आयोग पर विश्वसनीयता का संकट गहराता चला गया है। जिस ढंग से बनारस में तेज बहादुर यादव का नामाकंन रद्द किया गया और उसमें सर्वोच्च न्यायालय ने भी कोई हस्ताक्षेप नही किया उससे चुनाव आयोग के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिष्ठा पर भी आंच आयी है। आयोग की निष्पक्षता को लेकर जो प्रश्नचिन्ह बंगाल के संद्धर्भ में लगे हैं उनके परिणाम दूरगामी होंगे। क्योंकि बंगाल में हिंसा तो पहले चरण से ही शुरू हो गयी थी जो हर चरण में जारी रही। लेकिन आयोग ने जो कदम अमितशाह प्रकरण के बाद उठाया वह पहले क्यों नही उठाया गया। प्रशासन तो चुनाव आयोग के ही नियन्त्रण में था। यदि आज गृह सचिव और एडीजीपी को हटाया जा सकता है तो यही कदम पहले भी उठाया जा सकता था। अब अमितशाह प्रकरण के बाद चुनाव प्रचार पर दो दिन पहले ही रोक लगा देने से आयोग की निष्पक्षता पर और भी गंभीर आक्षेप आ गये हैं। और जब देश में चुनाव आयोग की विश्वसनीयता ही खत्म हो जायेगी तब पूरे चुनाव परिणामों पर भी अपने आप ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है। यह प्रश्नचिन्ह लगना सीधे सीधे अराजकता का खतरा इंगित करता है और यही सबसे घातक है। क्योंकि जब संस्थानों की विश्वसनीयता पर आंच आनी शुरू होती है तब उससे अराजकता ही पैदा होती है यह तय है।