अब देश का चौकीदार ही सवालों में

Created on Monday, 25 March 2019 10:37
Written by Shail Samachar

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक समय कहा था कि वह देश के शासक नहीं बल्कि चौकीदार है। वह अपने को कामगार भी कहते हैं। देश का प्रधानमन्त्री जब अपने को स्वयं इस तरह के संबोधन देता है तो निश्चित रूप से हर आदमी उनकी सादगी और विनम्रता का कायल हो जाता है। लेकिन जब देश के सामने यह आता है कि उनका विनम्र चौकीदार लाखों का सूट पहनता है और उसने अपना पारिवारिक स्टेटस एक लम्बे अरसे तक देश के सामने नही आने दिया तब न केवल उस चौकीदार के इमेज़ को बल्कि आम आदमी के विश्वास को भी गहरा धक्का लगता है। पारिवारिक स्टेटस को छिपाना इतने बड़े पद की गरिमा के साथ मेल नहीं खाता है। नरेन्द्र मोदी की यह पहली और बड़ी नैतिक हार है और जब व्यक्ति अपना नैतिक बल खो देता है तब वह सबसे पहले अपने में ही हार जाता है। जबकि इस स्टेटस को छिपाने की कोई आवश्यकता नही थी। फिर यह स्टेटस जब चुनाव घोषणा पत्र के माध्यम से सामने आया तब यह और भी प्रश्नित हो जाता है।
प्रधानमन्त्री देश का एक सर्वोच्च सम्मानित पद है और इस पद की संवैधानिक जिम्मेदारीयां बहुत बड़ी है। प्रधानमन्त्री होने के नाते बहुत बड़ी शासकीय जिम्मेदारीयां है। यह जिम्मेदारीयां निभाते हुए प्रधानमन्त्री का आचरण चौकीदार वाला भी रहना चाहिये यह आवश्यक है। क्योंकि चौकीदार की केवल जिम्मेदारीयां ही होती हैं उसके कोई वैधानिक अधिकार नही होते हैं। चौकीदार केवल चीजों /घटनाओं पर नज़र रखता है और उसकी रिपोर्ट मालिक को देता है। यदि कहीं चोरी भी हो जाये तो चौकीदार उसकी पहली सूचना मालिक को देता है और फिर मालिक तय करता है कि उस चोरी की शिकायत उसने पुलिस से करनी है या नहीं। इस परिदृश्य में जब राफेल सौदे में घपला होने के आरोप लगे और उसमें सीधे प्रधानमन्त्री कार्यालय की भूमिका पर भी सवाल उठे तब यह ‘‘चौकीदार शब्द और पद चर्चा में आया। क्योंकि प्रधानमन्त्री के पास मालिक और चौकीदार दोनों की भूमिकाएं एक साथ थी। आज राफेल मामला सर्वोच्च न्यायालय के पास है और उसमें केन्द्र सरकार चार बार अपना स्टैण्ड बदल चुकी है। इस स्टेण्ड बदलने से आम आदमी भी यह मानने पर विवश हो गया है कि इसमें कुछ तो गड़बड़ है और हकीकत केवल जांच से ही सामने आयेगी।
सरकार इसमें जांच के लिये तैयार नहीं हो रही है। इसमें जो दस्तावेजी प्रमाण मीडिया के माध्यम से सामने आये हैं और उन पर गोपनीयता अधिनियम की अवहेलना का जिस तरह से आरोप लगाया गया है उससे पूरे विश्व की हमारे सर्वोच्च न्यायालय पर नज़रें लग गयी हैं। पूरा विश्व यह देख रहा है कि इसमें सरकार क्या छिपाना चाह रही है और उस पर शीर्ष न्यायपालिका का रूख क्या रहता है। लेकिन इस मुद्दे पर सरकार देश के सामने तथ्य रखने की बजाये पूरी चर्चा को भावनात्मक आवरण से ढकना चाह रही है। पूरी भाजपा ‘‘मै भी चौकीदार हूं’’ हो गयी है। लेकिन यह सारे चौकीदार मिलकर भी यह नहीं बता पा रहे हैं कि 2014 में चर्चित रहे भ्रष्टाचार के कौन से मुद्दे पर फैसला आ पाया है या उसकी स्थिति क्या है। मंहगाई क्यों बढ़ी है। रोज़गार क्यों नहीं मिल पाया है। भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम में संशोधन क्यों किया गया। नोटबन्दी से किसको क्या लाभ मिला है। आज ऐसे दर्जनों सवाल हैं जिन पर जनता को जवाब चाहिये।
आज जवाब मांगने वाले को राष्ट्रविरोधी कहकर चुप नहीं कराया जा सकता। गुजरात मामलों पर सर्वोच्च न्यायालय में आयी जस्टिस बेदी कमेटी की रिपोर्ट पर अगली कारवाई कब होगी। अभी समझौता एक्सप्रैस में हुए बलास्ट में दोषी बनाये गये सारे लोग छूट गये हैं यह एक अच्छी बात है लेकिन क्या इसी मामले में रहे जांच अधिकारियों और सरकारी अभियोजकों के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार कारवाई की जायेगी? क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने इन आपराधिक मामलों के अदालत में असफल रहने पर उनसे जुड़े अधिकारियों के खिलाफ कारवाई करने के निर्देश जारी कर रखे हैं। आज जिस तरह से पूरे मुस्लिम समुदाय को एक तरह से आतंक का पर्याय प्रचारित कर दिया गया है वह किसी भी गणित से देशहित नहीं माना जा सकता। क्योंकि यह एक सच्चाई है कि इस शासनकाल में प्रधानमन्त्री की अपील के बावजूद भीड़ हिंसा और गो रक्षा जैसे मामलों में मुस्लिम और दलित सबसे अधिक उत्पीड़ित वर्ग रहे हैं। आज यह वर्ग भाजपा से निश्चित रूप से डरे हुए हैं और इसी कारण से मन से उसके साथ नही हैं। यही भाजपा का सबसे कमजोर पक्ष है और इसी को लेकर देश का चौकीदार सवालों में है।