मोदी सरकार का इस कार्यकाल का अन्तिम बजट आ गया है लेकिन जिस तर्ज पर यह बजट है उससे एक अब तक चली आ रही संसदीय परम्परा को बदल दिया गया। संसद की परम्परा है कि चुनावी वर्ष में सत्तारूढ़ सरकार अन्तरिम बजट में कोई नीतिगत निर्णय नहीं लेती है। यह काम आने वाली सरकार के लिये छोड़ दिया जाता है क्योंकि जाने वाली सरकार के पास इतना समय शेष नहीं होता कि वह इन फैसलों को अमली जामा पहना सके। और आने वाली सरकारअपनी नीतियां तथा कार्यक्रम अपनी चुनावी घोषणाओं के अनुसार तय करेगी। इस परिप्रेक्ष में जाने वाली सरकार की नीतिगत घोषणाओं को चुनाव जीतने के प्रलोभनों के रूप में देखा जाता है। 2014 में लोकसभा के परिणाम 16 मई को आ गये थे। इस नाते अब भी तब तक परिणाम आ जायेंगे। इसके लिये मार्च के प्रथम सप्ताह में आचार संहिता लग जायेगी और तब ना कोई फैंसले लिये जायेंगे और न ही लिये हुए फैसलों पर अमल हो पायेगा। इस तरह केवल एक ही फैसला अमल में आ पायेगा और वह है किसानों को छः हजार रू. की राहत पहुंचाना क्योंकि इसे दिसम्बर 2018 से लागू कर दिया गया है।
किसानों को दी गयी इस 17 रूपये प्रतिदिन की सहायता पर किसानों की क्या प्रतिक्रिया रहती है यह आने वाले दिनों में सामने आ जायेगी। अभी ही देश भर के किसान दिल्ली के बाहर जमा हो गये हैं और प्रधानमन्त्री से मिलने का समय मांग रहे हैं। किसानों के बाद आयकर में जो पांच लाख की छूट की बात की गयी है उसमें केवल चतुर्थ श्रेणी के ही कर्मचारी सीधे लाभान्वित होंगे अन्य कर्मचारियों को इससे कोई बड़ी राहत नहीं मिलेगी क्योंकि कुल वेतन की आय पांच लाख से बढ़ जाती है। ऐसे कर्मचारियों को पूर्ववत ही राहत मिलेगी। लेकिन इससे एक बड़ा सवाल आने वाले समय में यह सामने आयेगा कि सरकार ने आर्थिक आधार पर आरक्षण के लिये आय सीमा आठ लाख रखी है और आयकर राहत पांच लाख। यह अपने में स्वतः विरोधी हो जाता है। इस पर आने वाले दिनों में सरकार को अपना पक्ष स्पष्ट करना होगा। क्योंकि आर्थिक आधार पर आरक्षण को सर्वोच्च न्यायालय मे चुनौति दी जा चुकी है और अब सरकार का 5 लाख तक आयकर राहत और आरक्षण के 8 लाख की सीमा से आरक्षण पर सरकार की अपनी ही अस्पष्टता सामने आ जाती है। इसका सर्वोच्च न्यायालय क्या संज्ञान लेता है यह तो आने वाले समय में ही सामने आयेगा लेकिन यह तय है कि सरकार की इस नीति पर बहस अवश्य उठेगी। इस तरह सरकार ने अन्तरिम बजट में नीतिगत फैसले करके सीधे यही इंगित किया है कि आने वाले चुनाव में जीत हासिल करने के लिये सरकार किसी भी हद तक जा सकती है।
अन्तरिम बजट में संसदीय परम्परा से हटने के साथ ही सरकार की नीयत और नीति राम मन्दिर निर्माण को लेकर भी सवालों के घेरे में आ जाती है। जब सरकार से मांग की जा रही थी कि वह इसके लिये अध्यादेश लाये तब प्रधानमंत्री ने कहा कि वह अदालत के फैसले की प्रतिक्षा करेंगे। लेकिन उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय में उस जमीन के लिये आवेदन कर दिया जिसे अविवादित कहा जा रहा है। जबकि सरकार के इस अधिग्रहण को ही अदालत में ‘‘अंवाच्छित’’ कहा हुआ है। फिर सरकार तो इस प्रकरण में अदालत में पार्टी ही नही है ऐसे में अदालत सरकार के आग्रह को कैसे लेती है और कैसे इस पर त्वरित सुनवाई करती है यह देखना भी रोचक होगा। लेकिन इसी के साथ जिस ढ़ग से दो दो धर्म संसद आयोजित हुये हैं ओर 21 फरवरी को यह निर्माण शुरू कर देनें की घोषणाएं हुई हैं तथा अदालत के जजों के यहां धरने प्रदर्शन करने की चेतावनीयां दी गई हैं उससे एकदम 1992 जैसा माहौल बनने की पूरी पूरी संभावनाएं बन गयी हैं। क्योंकि यह तय है कि साधु समाज का एक वर्ग इस निर्माण की शुरूआत करने आयेगा ही और निर्माण स्थल तथा उसके आसपास धारा 144 लागू ही है। ऐसे में यदि सरकार इन्हे यहां आने से रोकती नही है तब भी कानून और व्यवस्था को लेकर स्वाल उठेंगे। यदि रोकने का प्रयास करेगी तब हिंसा से इसे कोई रोक नही सकेगा। यह सब इससे होना तय लग रहा है। देश में लोकसभा चुनाव से पुर्व साम्प्रदायिक दंगे भड़कने की आशंका तो अमेरिका की सीनेट में वैश्विक खतरों पर आयी डाॅन कोटस की रिपोर्ट में बड़े स्पष्ट शब्दों में व्यक्त की गई है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भाजपा लोकसभा चुनावों से पहले अपने हिन्दु एजैण्डा को बढ़ाने के लिये जैसे ही कदम उठायेगी उसी के साथ देश में सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठेगी। अमरीका की सीनेट में चर्चा में आयी इस रिपोर्ट पर भारत सरकार और भाजपा की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है। कोई प्रतिक्रिया न आना तथा धर्म संसद द्वारा 21 फरवरी का निर्माण कार्य शुरू करने के लिये समय तय करना इन आशंकाओं को पुख्ता करता है।
क्योंकि सरकार के पास अर्थिक मोर्चे पर भी कोई बहुत कुछ ऐसा नही है जिसे चुनावों में आसानी से भुनाया जा सके। भारत सरकार के आर्थिक मामलों के विभाग द्वारा पेश की गई वितिय स्टेटस रिपोर्ट के अनुसार भारत सरकार का जो कर्जभार 2014 में था उसमें दिसम्बर 2018 तक 49% की वृद्धि हुई है। इसी के साथ सरकार के सांख्यिकी आयोग की रिपोर्ट के अनुसार नोटबन्दी के बाद देश में 1.10 करोड़ नौकरियों में कमी आयी है। यह आयोग सरकार के आंकड़ो की निगरानी और उनका आकलन करता है। आयोग की रिपोर्ट के अनुसार बेरोजगारी 7.4% तक पहुंच गयी है। जो अब तक की सबसे बड़ी बेरोजगारी है। सरकार ने इस आयोग की रिपोर्ट को जब जारी नही किया तब इसके अध्यक्ष पी सी मोहनन और सदस्य डा. मीनाक्षी ने अपने पदों से त्यागपत्र दे दिया। जबकि मई 2017 में नियुक्त हुए इन लोगों का कार्यकाल जून 2020 तक था। ऐसे कई क्षेत्र हैं जहां सरकार की असफलताएं सामने है और चुनावों में इनके मुद्दा बननें की आशंका हैै। ऐसे में इन मुद्दों को चर्चा से बाहर रखने के लिये सांप्रदायिक हिंसा एक हथियार हो सकती है यह आशंका कोटस की रिपोर्ट में व्यक्त की गई है।