राम मन्दिर मुद्दे की सर्वोच्च न्यायालय ने दैनिक आधार पर सुनवाई करने से इन्कार कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय का यह इन्कार उस समय आया है जब देश के कानून मन्त्री रविशंकर प्रसाद ने शीर्ष अदालत से इस मामले की सुनवाई फास्टट्रैक करने का आग्रह किया था। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने टीवी साक्षात्कार में कहा है कि सरकार इस मामले में अदालत के फैसले का इन्तजार करेगी और इसमें अध्यादेश लाने का विकल्प नही चुनेगी। भाजपा/ संघ के लिये राम मन्दिर निर्माण एक लम्बे अरसे से केन्द्रिय मुद्दा चला आ रहा है। दिसम्बर 1992 में इसी प्रकरण पर भाजपा की चार राज्यों की सरकारें राष्ट्रपति शासन की भेंट चढ़ गयी थी। 1992 के बाद केन्द्र में भाजपा की तीसरी बार सरकार बनी है। दो बार स्व. वाजपेयी के नेतृत्व में गठबन्धन की सरकार बनी थी। लेकिन 2014 में मोदी के नेतृत्व में भाजपा को जो प्रचण्ड बहुमत मिला है ऐसा शायद दूसरी बार नही मिले। इस बार भाजपा किसी सहयोगी पर निर्भर नही है। 2014 में यह वायदा भी किया गया था कि राममन्दिर का निर्माण उसकी पहली प्राथमिकता होगी। बल्कि आजतक संघ/ जनसंघ भाजपा के जो भी हिन्दुवादी मुद्दे रहे हैं उन्हे अमली जामा पहनाने का इस बार ऐसा अवसर मिला था जो निश्चित रूप से फिर नही मिलेगा। महत्वपूर्ण मुद्दों पर संसद का संयुक्त सत्र बुलाया जा सकता था भले ही वह राज्य सभा में लटक जाता लेकिन इससे भाजपा की नीयत पर किसी को भी सन्देह करने का अवसर न मिलता उल्टेे विरोधी जनता के सामने जबावदेही की भूमिका में आ जाते। लेकिन इस पूरे शासनकाल में मोदी सरकार ने एक भी दिन ऐसा कोई कदम नही उठाया। इससे संघ/भाजपा की नीयत पर जो सवाल/सन्देह उभरे हैं उनका वर्तमान में कोई जबाव नही है।
राम मन्दिर के मुद्दे पर संघ विश्व हिन्दु परिषद, साधु समाज और कई भाजपा/सांसदो/मन्त्रियों के जो ब्यान आये हैं और आ रहे हैं वह एकदम प्रधानमन्त्री के स्टैण्ड से अलग हैं। यह सभी लोग लोकसभा चुनाव से पहले मन्दिर के निर्माण की बातें कर रहे हैं। सरकार पर इस संद्धर्भ में कानून लाने की बात की जा रही है। इसके लिये केवल अध्यादेश लाने का ही विकल्प बचा है क्योंकि सामान्य विधेयक लाकर उसे कानून बनवा पाने की अब वक्त नही बचा है और सरकार अच्छी तरह जानती है। इस परिदृश्य में प्रधानमन्त्री का अदालत के फैसले की प्रतीक्षा करना 1992 दोहराये जाने का स्पष्ट संकेत बन रहे हैं। ऐसे में यह सवाल और अहम हो जाता है कि क्या यह सब एक सुनियोजित रणनीति के तहत हो रहा है यह सही में प्रधानमन्त्री और इन अन्यों के बीच गंभीर मतभेद चल रहे हैं क्योंकि अब तक जो कुछ सरकार बनने के बाद घटा है वह इसी ओर संकेत करता है कि यह सब कुछ रणनीतिक है। क्योंकि जब भी संघ/भाजपा और मोदी के कुछ मन्त्रीयों के विवादित के ब्यान आते थे तब प्रधानमन्त्री रस्मी नाराजगी और चुप रहने की नसीहत का ब्यान देते रहे जिसका व्यवहार में कोई अर्थ नही रहा। देश जानता है कि मण्डल के विरोध में उठा आरक्षण विरोधी आन्दोलन कितना उग्र हो गया था। उसमें आत्मदाह तक हुए। वी पी सिंह सरकार गिरने के साथ ही यह आन्दोलन बन्द तो हो गया लेकिन आरक्षण के खिलाफ भावना और धारणा बनी रही। अब जब मोदी सरकार आयी तब फिर कई राज्यों से आरक्षण को लेकर आवाजें उठी। मांग की गयी कि या तो हमें भी आरक्षण दो या सबका बन्द करो। मामला सर्वोच्च न्यायालय तक जा पहुंचा और शीर्ष अदालत ने फैलसा दे दिया लेकिन मोदी सरकार ने संसद का सहारा लेकर यह फैसला बदल दिया। इससे भाजपा सरकार और संघ की नीयत और नीति पर सवाल उठे हैं यही आचरण धारा 370 को लेकर सामने आया हैं इस तरह ऐसे कई मुद्दे हैं जहां संघ/भाजपा की कथनी और करनी का फर्क खुलकर सामने आ गया है।
इस परिदृश्य में आज राम मन्दिर को लेकर यह सवाल उठता है कि सर्वोच्च न्यायालय से आज जो इस मामले की दैनिक आधार पर सुनवाई करने की मांग की जा रही है क्या यह मांग और प्रयास 2014 में मोदी सरकार बनने के साथ ही नही हो जाना चाहिये था? लेकिन उस समय ऐसा नही किया गया क्योंकि उस समय कोई चुनाव नही होने जा रहे थे। आज चुनावों की पूर्व संध्या पर राम मन्दिर को लेकर जो वातावरण समाज में खड़ा किया जा रहा है उसके परिणाम क्या होंगे यह तो आने वाला समय ही बातायेगा। लेकिन जो कुछ भी घटता नज़र आ रहा है वह शायद देशहित में नही होगा। लगता है राम मन्दिर को लेकर 1992 को दोहराने की नीयत और नीति अपनाई जा रही है।