शिमला/शैल। अभी देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं। इनमें किसकी सरकारें बनेगी इसका पता परिणाम आने पर ही लगेगा। इन चुनावों के बाद अगले वर्ष मई में लोकसभा के लिये चुनाव होंगे। मोदी सरकार का सत्ता में इस कार्यकाल का यह अन्तिम वर्ष चल रहा है। इस चुनावी परिदृश्य को लेकर अभी तक केवल एक ही बात स्पष्ट है कि 2014 में मोदी भाजपा के पक्ष मे जो माहौल बन गया था वैसा आज बिल्कुल नही है। इस दौरान जिन राज्यों में भी लोकसभा के लिये उपचुनाव हुए हैं वहां भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा है। इसके अतिरिक्त भी पिछले दिनों गुजरात और कर्नाटक विधानसभाओं के लिये हुए चुनावों में भी गुजरात में भले ही भाजपा की सरकार बन गयी है लेकिन वहां कांग्रेस को भी बड़ी जीत हासिल हुई है। बल्कि इसी जीत के परिणामस्वरूप कर्नाटक में भाजपा सत्ता से बाहर हो गयी। इस परिदृश्य में पांच राज्यों में हो रहे चुनाव बहुत हद तक लोकसभा की तस्वीर साफ कर देंगे। यदि इन राज्यों में भाजपा सत्ता में न आ पायी तो उसके लिये लोकसभा में जीत हासिल कर पाना आसान नही होगा। इस दृष्टि से इन राज्यों में हो रहे चुनाव प्रचार और उसमें उभर रहे मुद्दों पर नज़र रखना आवश्यक हो जाता है क्योंकि यही मुद्दे लोकसभा चुनावों में भी केन्द्रिय मुद्दे होंगे।
2014 के लोकसभा चुनावों में यूपीए सरकार का भ्रष्टाचार इतना बड़ा मुद्दा बन गया था कि सरकार भ्रष्टाचार का पर्याय ही प्रचारित हो गयी थी। इसी भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आन्दोलन आया और लोकपाल की स्थापना मुख्य मांग बन गयी। सरकार को संसद में इस आश्य का बिल लाना पड़ा और यह विधेयक अन्ततः पारित भी हो गया। विधेयक आने के साथ ही अन्ना का आन्दोलन भी समाप्त हो गया और फिर सत्ता भी लोगों ने पलट दी। लेकिन नयी सत्ता अपने पूरे कार्यकाल में लोकपाल की नियुक्ति नही कर पायी। उल्टे भ्रष्टाचार निरोधक कानून में संशोधन कर दिया गया। संशोधित कानून के तहत कोई भ्रष्टाचार की शिकायत कर पायेगा इसको लेकर कई सवालिया निशान खड़े हो गये हैं। इसी के साथ यह भी महत्वपूर्ण है कि भ्रष्टाचार के जिन मुद्दों पर लोगों ने सत्ता पलटी थी उनमें से एक भी मुद्दे पर मोदी के कार्यकाल में कोई परिणाम नही आया है। उल्टे आज देश की शीर्ष जांच ऐजैन्सीयों पर इन्हीं ऐजैन्सीयों के शीर्ष अधिकारियों ने एक दूसरे के खिलाफ भ्रष्टाचार के जिस तरह से आरोप लगाये हैं उससे न कवेल इनकी अपनी ही विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हो गये बल्कि आम आदमी के विश्वास को गाहरा आघात लगा है।
आज सीबीआई का मामला सर्वाेच्च न्यायालय में पहुंचा हुआ है। इसी मामले में सीबीआई के ही उसी डीआईजी ने जो विशेष निदेशक अस्थाना के खिलाफ दर्ज एफआईआर की जांच कर रहा है ने सर्वोच्च न्यायालय में वाकायदा शपथपत्र देकर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सीजीसी केन्द्र सरकार के कानून सचिव और पीएमओ के ही राज्य मन्त्री हरिभाई पार्थीभाई चौधरी के खिलाफ जो रिश्वतखोरी के आरोप लगाये हैं वह सबसे अधिक चिन्ता का विषय बन जाता है। आज तक मोदी सरकार यह दावा करती रही है कि उसके किसी अधिकारी या मन्त्री पर भ्रष्टाचार के सीधे आरोप नही लगे हैं। लेकिन आज सीबीआई के कार्यरत डीआईजी मुनीष कुमार सिन्हा ने शपथपत्र दायर करके सर्वोच्च न्यायालय में सीधे उन लोगों पर आरोप लगाये हैं जो सीधे प्रधानमन्त्री मोदी से जुड़े हैं। इस डीआईजी के आरोप और निदेशक आलोक वर्मा का सीबीआई के पास दिया गया ब्यान सबकुछ जनता की अदालत में पहुंच चुका है। सर्वोच्च न्यायालय इससे खफा है वह ऐजैन्सी की विश्वसनीयता बहाल करना चाहती है। लेकिन आज शीर्ष अदालत को भी यह समझना होगा कि यह मुद्दा केवल अधिकारियों की प्रतिष्ठा उनके स्थानान्तरण तक का ही नही रह गया है। आज इन आरोपों की निष्पक्ष जांच देश की जनता के सामने आनी चाहिये और उसे यह लगना भी चाहिये कि सही में जांच हुई है। देश की जनता के भरोसे को अरूणाचल के स्व. मुख्यमन्त्री कालिखोपुल के आत्महत्या से पूर्व लिखे पत्र से बहुत ठेस लगी है इस पत्र का भी हर पन्ना हस्ताक्षरित है और यह पत्र भी जवाब मांग रहा है यह जवाब भी सर्वोच्च न्यायालय को ही देना होगा। इसी पत्र के साथ पत्रकार राणा अयूब की किताब ‘‘गुजरात फाइल्ज़’’ में दर्ज सारा कथ्य भी जवाब चाहता है क्योंकि राणा अयूब ने दावा किया है कि यह किताब नही बल्कि एक स्टिंग आॅप्रेशन है। इस किताब पर आज तक संघ /भाजपा की कोई प्रतिक्रिया नही आई है।
इस तरह आज डीआईजी सिन्हा का शपथपत्र, कालिखोपुल का सुसाईड नोट और राणा अयूब की ‘‘गुजरात फाईल्ज़’’ जो कथ्य और तथ्य देश की जनता के सामने रख रहे हैं उसे गंभीरता से लेते हुए प्रधानमंत्री और देश की शीर्ष अदालत की जिम्मेदारी बनती है कि वह इस पर कोई जवाब देश की जनता के सामने रखे। क्योंकि प्रधानमंत्री और सर्वोच्च न्यायालय इस सबसे सीधे जुड़े हैं।