शिमला/शैल। राम मन्दिर बनाम बाबरी मस्जिद विवाद एक लम्बे अरसे से देश की राजनीति का एक केन्द्रिय मुद्दा बना हुआ है। दिसम्बर 1992 को देश के भाजपा शासित राज्यों की सरकारें कैसे राम मन्दिर आन्दोलन की बलि चढ़ गयी थी यह सब हम देख चुके हैं। उसके बाद राममन्दिर कैसे चुनावी मुद्दा बन गया और इसी मुद्दे पर केन्द्र में सत्ता परिवर्तन हो गया यह भी देश देख चुका है। लेकिन राम मन्दिर के नाम पर सत्ता परिवर्तन होने के बावजूद आजतक मन्दिर का निर्माण नही हो पाया है। यह निर्माण न हो पाने के लिये अदालत में इस मुद्दे के लंबित होने को कारण बताया जा रहा है। स्मरणीय है कि इस मुद्दे पर 30 सितम्बर 2010 को इलाहबाद उच्च न्यायालय की तीन जजों पर आधारित पीठ का फैसला आया था। इस फैसले में इसकी 2.77 एकड़ ज़मीन को तीन बराबर हिस्सो में बांट दिया गया था। एक हिस्सा जहां पर राम की मूर्ति विराजमान है उसे रामलल्ला विराजमान को, राम चबूतरा और सीता रसोई वाली जगह निर्माेही अखाड़े को और बचा हुआ एक तिहाई हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को दे दिया था। इलाहबाद उच्च न्यायालय में इसकी सुनवाई के दौरान 524 दस्तावेज, संस्कृत, पाली, फारसी, अरबी, उर्दू और हिन्दी के 42 ग्रंथों के संद्धर्भ में 87 गवाहों के कई हजार पृष्ठों में दर्ज ब्यान रिकार्ड पर आ चुके हैं। इसके अतिरिक्त पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा 1970, 1976-77, 1992 और 2003 में की गयी खुदाई में मिले विभिन्न प्रमाणों को भी इसका हिस्सा बनाया गया है। इस सबकी समीक्षा करने के बाद पीठ ने यह फैसला दिया है लेकिन मामले के तीनों पक्षकार इस फैसले से सहमत नही हुए और तीनों ही सर्वोच्च न्यायालय में अपील में हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने अबतक की सुनवाई में यह कह दिया है कि इसमें और कोई दस्तावेज या अन्य प्रमाण नही सौंपे जायेंगे। जो कुछ इलाहबाद उच्च न्यायालय के सामने आ चुका है उसी पर विचार किया जायेगा। इस तरह यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में लंबित चल रहा है। 21 मार्च 2017 तत्कालीन प्रधान न्यायधीश जे एस खेहर की पीठ ने इसे संवदेनशील और जन भावनाओं से जुड़ा मामला माना था और सभी पक्षकारों को सलाह दी थी कि ऐसे संवदेनशील मुद्दों का सबसे अच्छा हल आपसी बातचीत से ही निकाला जा सकता है। लेकिन इस सुझाव पर कोई अमल नही हो पाया। खेहर के बाद दीपक मिश्रा मुख्य न्यायधीश बने उन्होंने कहा था कि वह जनभावनाओं या आस्था के आधार पर फैसला नही कर सकते और किस मामले की सुनवाई कब की जानी चाहिए इसका फैसला न्यायालय अपने विवेक से तय करता है। यदि उसे लगता है कि मामला त्वरित सुनवाई योग्य है तो उस पर तुरन्त पीठ गठित करके सुनवाई शुरू कर देता है। लेकिन इस अयोध्या मामले को सर्वोच्च न्यायालय ने त्वरित सुनवाई के योग्य न तब माना था और न ही अब माना है। अब मुख्य न्यायधीश रंजन गोगोई की पीठ ने इस पर जनवरी 2019 तक के लिये सुनवाई टाल दी है। जनवरी में इसकी सुनवाई के लिये पीठ गठित की जायेगी और फिर यह करनी है।
सर्वोच्च न्यायालय के इस रूख पर कुछ हिन्दु संगठनों की तीव्र प्रतिक्रियाएं आयी हैं। इससे जुड़ा साधु समाज पूरी तरह आक्रोशित है। सरकार को अल्टीमेटम तक दे दिये गये हैं। यह मांग की जा रही है कि सरकार इस पर एक अध्यादेश लाकर इस जमीन का अधिग्रहण करके मन्दिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करे। भाजपा के योगी आदित्यनाथ जैसे नेता भी करके तुरन्त मन्दिर निर्माण शुरू करने की बात कर रहे हैं। इस समय पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं। इन चुनावों के बाद मई 2019 में लोकसभा चुनाव आने हैं। राम मन्दिर निर्माण को लेकर भाजपा पर यह सवाल दागा जा रहा है कि मन्दिर का निर्माण कब होगा ‘‘मन्दिर वहीं बनायेंगे लेकिन तारीख नही बतायेंगे’’ यह व्यंग्य सुनने को मिल रहा है। यह सवाल अबतक अलग शक्ल लेता जा रहा है कि भाजपा/संघ को राम मन्दिर के बनने में उतनी रूची नही है जितनी आवश्यकता मन्दिर मुद्दे को बनाये रखने की है। मन्दिर बन जाने के बाद मुद्दा समाप्त हो जायेगा और इसका लगातार चुनावी लाभ ले पाना संभव नही रह जायेगा। यदि भाजपा/संघ सही मन्दिर निर्माण के प्रति गंभीर होते तो मोदी सरकार जब केन्द्र में सत्ता में आयी थी तभी से इस दिशा में तुरन्त कदम उठाये होते तो शायद सरकार के कार्यकाल के शुरू के ही दो तीन वर्षों में मन्दिर बन भी चुका होता। लेकिन सरकार ने न तो अदालत में इस मामले की शीघ्र सुनवाई किये जाने के कोई प्रयास किये और न ही जब जमीन अधिग्रहण करने का प्रयास किया गया। भाजपा/संघ ने जब राहूल गांधी के मन्दिरों में जाने, उसके हिन्दु होने और मानसरोवर यात्रा आदि पर सवाल उठाये थे तब से यह धारणा पुख्ता हो गयी है कि इन्हे मन्दिर /मस्जिद, हिन्दु/मुस्लिम केवल चुनावी मुद्दों के लिये चाहिये। आज जिन पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं वहां भाजपा ने कितने मुस्लमानों को चुनाव में उम्मीदवार बनाया है? शायद किसी को नही। इसी से मोहन भागवत के उस ब्यान की सच्चाई पर खीज सकती है कि मुस्लिमों के बिना देश संभव ही नही है। धारा 370 से लेकर युनिफाईड सिविल कोड जैसे जितने मुद्दों पर 2014 के चुनावों तक बाते की जाती थी उन पर सत्ता में आने के बाद क्या कदम उठाये गये। जिस आरक्षण पर सर्वोच्च न्यायालय ने दो टूक स्पष्ट फैसला दे दिया था उसे संसद में लाकर पलट दिया गया क्योंकि संसद में आपका प्रचण्ड बहुमत था। ऐसे में सवाल उठता है कि यदि आरक्षण पर यह किया जा सकता था तो इसी प्रचण्ड बहुमत का सहारा लेकर मन्दिर से धारा 370 तक के मुद्दों को क्यों नही सुलझा लिया गया? जवाब सीधा है कि यदि यह सब सुलझ गया होता तो आज देश बेरोजगारी, मंहगाई और भ्रष्टाचार जैसे सवालों पर सरकार को घेर लेती। लेकिन आज मन्दिर, हिन्दु-मुस्लिम के फर्जी मुद्दों के सहारे राफेल और नोटबंदी जैसे गंभीर मुद्दों से बचने का जो प्रयास किया जा रहा है वह शायद संभव नही होता।
इस परिदृश्य में यह बहुत सही है कि अयोध्या मुद्दे का हल अस्था और जन भावनाओं के आधार पर नही करने की जो बात सर्वोच्च न्यायालय ने की है उसका स्वागत किया जाना चहिये। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समाने जो विवाद खड़ा हुआ था यह शुद्ध रूप से ज़मीन के मालिकाना हक को लेकर है और सर्वोच्च न्यायालय ने भी उसे उसी रूप में सुनने की बात की है यह एक सकारात्मक सोच है। मालिकाना हक का फैसला दस्तावेजों के आधार पर हो जायेगा और उसे उसी रूप में स्वीकार भी किया जाना चहिये। इसमें सर्वोच्च न्यायालय से यह आग्रह रहना चाहिये कि इस मामले में लोकसभा चुनावों से पहले कोई सुनवाई न की जाये और चुनावों के बाद इसे त्वरित आधार पर निपटा दिया जाये ताकि यह फिर किसी चुनाव का मुद्दा न बन पाये। क्योंकि यह विवाद अबतक कई सरकारों और लोगों की बलि ले चुका है और इसमें आगे ऐसा न हो इससे बचने का प्रयास किया जाना आवश्यक है। चुनाव देश के भाग्य का फैसला करता है। देश आगे भविष्य में किस ओर जाने वाला है इसका निर्धारण चुनाव करता है। इसलियेे देश का भविष्य भावनात्मक मुद्दों पर नहीं वरन् गंभीर मुद्दों पर तय किया जाना चाहिये।