नवम्बर 2016 को लागू की गयी नोटबंदी के बाद पुरानी मुद्रा के 500 और 1000 रूपये के नोटों का चलन बन्द कर दिया गया था। इस आदेश के साथ ही जनता को पुराने नोटों को नये नोटों से बदलने के लिये समय दिया गया था। इस दिये गये समय में कितने पुराने नोट वापिस बैंको में जमा हुए और अन्ततः रिजर्व बैंक के पास पंहुचे इसकी अब 21 माह बाद फाईनल रिपोर्ट आ गयी है। आरबीआई ने संसदीय दल को सौंपी रिपोर्ट में कहा है कि देश में पुरानी 500 और 1000 की मुद्रा के कुल 15.44 लाख करोड़ के नोट थे। जिनमें से 15.31 लाख करोड़ के नोट वापिस आ गये हैं जो कि 99.3% होते हैं। इसी के साथ यह भी कहा गया है कि इन वापिस आये नोटों में नेपाल और भूटान से आये नोट शामिल नही हैं। आरबीआई की रिपोर्ट से यह स्पष्ट हो जाता है कि पुरानी मुद्रा के लगभग सौ प्रतिशत ही नोट वापिस आ गये हैं।
इससे सबसे पहले यह सवाल उठता है कि जो प्रचार हो रहा था कि देश में कालेधन की समानान्तर अर्थव्यवस्था खड़ी हो गयी है वह प्रचार निराधार था। स्वामी राम देव जैसे कई लोग आये दिन लाखों करोड़ के कालेधन के आंकड़े देश के सामने रख रहे थे। आज आरबीआई की रिपोर्ट आने के बाद यह सारा प्रचार एक सुनियोजित षडयंत्र लग रहा है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि यह प्रचार शायद प्रायोजित था। क्योंकि जब नोटबन्दी की घोषणा की गयी थी तब प्रधानमन्त्री ने नोटबन्दी का यही तर्क दिया था कि यह कदम कालेधन को रोकने के लिये उठाया गया है। क्योंकि कालेधन का निवेश आंतकवाद के लिये हो रहा था। प्रधानमन्त्री ने जब यह तर्क देश के सामने रखा था तब देश की जनता ने उन पर विश्वास कर लिया था। इसी विश्वास के कारण लोग इस फैसले के विरोध में लामबन्द होकर सड़कों पर नही उतरे थे। देश को लगा था कि जब प्रधानमन्त्री इतना बड़ा फैसला ले रहे हैं तो निश्चित रूप से उनके पास कालेधन और उसके निवेश को लेकर ठोस जानकारियां रही होंगी। उनके वित्तमन्त्रा ने पूरी तस्वीर उनके सामने रखी होगी। लेकिन आज यह सब पूरी तरह गलत साबित हुआ है। क्योंकि इसी का दूसरा प़क्ष तो और भी घातक हो जाता है कि क्या यह कदम आम आदमी की कीमत पर कालेधन को सफेद बनाने के लिये उठाया गया था। क्योंकि आज तक यह नही बताया गया है कि कितना कालाधन पकड़ा गया है। आरबीआई की रिपोर्ट के बाद प्रधानमन्त्री, वित्तमन्त्री और उनकी सरकार की विश्वसनीयता पर गंभीर प्रश्नचिन्ह लग जाता है।
आरबीआई की रिपोर्ट से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस फैसले से देश को दो गुणा नुकसान हुआ है। क्योंकि मुद्रा की प्रिंटिग का एक नियम है। किसी भी देश की करेंसी उस देश के जीडीपी के अनुपात में छापी जाती है भारत में यह अनुपात 10.6 प्रतिशत है। रिजर्व बैंक इस संतुलन को बनाये रखता है। लेकिन भारत में जब से सरकारी क्षेत्र में निजिक्षेत्र का प्रभाव बढ़ा है तक से सरकारी बैंक खतरे में पड़ गये हैं और विजय माल्या,मेहुल चौकसी और नीरव मोदी जैसे प्रकरणों ने इस खतरे को पुख्ता भी कर दिया है। इस संद्धर्भ मे आरबीआई की वेबसाईड पर पड़े मनी स्टोक के आंकड़े यह बताते है कि अप्रैल 2012 में परिचलन में कुल 11,08,232 करोड़ रूपये थी जिसमें से बैंकों की तिजोरी में 43,377 करोड और जनता की जेब में 10,64,855 करोड़ थी। जुलाई 2016 में परिचलन 17,36,177 करोड़ रूपये थी जिसमें से बैंको के पास 75034 करोड़ रूपये और बैंको से बाहर जनता की जेब 16,61,143 करोड़ रूपये थे। आरबीआई के इन आंकड़ो को शायद यह मान लिया गया कि देश में इतना कालाधन है जिसे नोटबंदी से एक ही झटके में समाप्त किया जा सकता है। लेकिन वास्तव में यह सब बैंकां पर कम होते जा रहे विश्वास का परिणाम था। नोटबंदी के बाद जिस तरह से सरकारी बैंकों का घाटा सामने आता जा रहा है उससे यह भरोसा और कम हो रहा है। इसी के कारण जहां 15.44 की पुरानी करेंसी को बदलना पड़ा है उसी के साथ उतनी ही नयी करेंसी को छापना पड़ा है। इस दोहरे नुकसान के कारण क्या आज करेंसी के मुद्रण में आरबीआई 10.6 प्रतिशत के अुनपात को बनाये रख पाया है या नही इसको लेकर अधिकारिक तौर पर कुछ भी सामने नही आया है।
नोटबन्दी के कारण देश की अर्थव्यवस्था को एक बड़ा आघात पंहुचा है अब इस तथ्य को स्वीकारना ही पड़ेगा। अर्थव्यवस्था तो देश की बुनियाद होती है। जब बुनियाद एक बार हिल जाती है तो उसे संभलने में समय लगता है। आज देश इस स्थिति से गुज़र रहा है। इससे प्रधानमन्त्री की अपनी समझ और विश्वसनीयता दोनों पर जो प्रश्नचिन्ह लगा दिया है उसके परिणाम घातक होंगे। क्योंकि यदि इस असफलता को सीधे और ईमानदारी से स्वीकारने की बजाये कुछ और मुद्दे खड़े करके देश का ध्यान बांटने का प्रयास किया जायेगा तो शायदे वह स्वीकार्य नही होगा।