क्या बढ़ते चुनाव खर्च पर रोक लगाई जा सकती है

Created on Tuesday, 17 July 2018 09:28
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। इन दिनों ‘‘एक देश एक चुनाव’’ पर एक चर्चा चल रही है। यह सुझाव महामहिम राष्ट्रपति ने अपने संसद के संबोधन में दिया था। आज इस पर देश के चुनाव आयोग ने कह दिया है कि वह इसके लिये तैयार है। विधि आयोग ने इस पर राजनीतिक दलों के साथ बैठकें शुरू कर दी हैं। कुछ दलों ने इससे सहमति जताई है तो कुछ ने असहमति। भाजपा और कांग्रेस ने इस पर अपना पक्ष आयोग के सामने नहीं रखा है। जिन दलों ने सहमति व्यक्त की है उन्होंने भी यह कहा है कि यह 2019 में होने जा रहे लोकसभा चुनाव में ही हो जाना चाहिये। यह विचार अमली शक्ल ले पाता है या जुमला बनकर ही रह जाता है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन राष्ट्रपति के माध्यम से बाहर आये इस विचार पर सत्तारूढ़ भाजपा की सहमति रही है या नहीं, या यह राष्ट्रपति का ही एक आदर्श विचार रहा है यह भी सामने नहीं आ पाया है। लेकिन यह विचार भाजपा के लिये एक बड़ा सवाल बन जायेगा क्योंकि इस विचार के लिये तर्क दिया जा रहा है कि इससे समय और धन दोनों की बचत होगी। व्यवहारिक रूप से यह कदम सही है कि पांच साल के कार्यकाल में केन्द्र से लेकर राज्य सरकारों तक को विधानसभा /लोकसभा/शहरी निकायों और ग्राम पंचायतों के चुनावों का सामना करना पड़ता है। हर चुनाव में आदर्श संहिता लागू होती है और उतने समय तक विकास कार्य प्र्र्रभावित होते हैं। इस गणित से सारे नहीं तो कम से कम लोकसभा और विधानसभा के चुनाव तो एक साथ हो जाने चाहिये। राजनीतिक दलों को अपने राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठकर देश हित में यह फैसला सर्वसम्मति से ले लेना चाहिये।
इस समय अधिकांश राज्यों में भाजपा की ही सरकारे हैं। कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के पास बहुत कम राज्य है। बल्कि राष्ट्रीय दलों के नाम पर आज भाजपा और कांग्रेस दो ही दल रह गये हैं। क्षेत्रीय दल अपने-अपने राज्य से बाहर नहीं हैं। इस नाते भाजपा और कांग्रेस दोनों को ही राष्ट्रहित में यह फैसला लेकर ‘‘एक देश एक चुनाव’’ को सार्थक बनाने में आगे आना चाहिये। यदि सही में ही हम समय और धन दोनों को बचाना चाहते हैं। इस समय चुनाव कितना महंगा हो गया है इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि चुनाव आयोग ने अधिकारिक तौर पर हिमाचल जैसे राज्य के लिये लोकसभा के लिये यह खर्च सीमा 70 लाख कर रखी है। इसका अर्थ यह है कि चुनाव आयोग भी मानता है कि लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिये 70 लाख रूपये खर्च हो सकते हैं। खर्च की यह सीमा उम्मीदवार पर व्यक्तिगत तौर पर लागू होती है, राजनीतिक दल पर नहीं। राजनीतिक दल प्रति उम्मीदवार कई करोड़ खर्च कर सकता है उसके लिये कोई सीमा नहीं है। यहां पर यह सवाल सामने आता है कि ऐसे कितने लोग हैं जो 70 लाख सफेद धन खर्च करके चुनाव लड़ सकता हो, शायद कोई भी नहीं। इसका यह अर्थ है कि चुनाव लड़ने के लिये व्यक्ति को किसी न किसी दल का सहारा लेना ही पड़ेगा। क्योंकि राजनीतिक दलों में आज चुनाव जीतने के लिये विचारधारा की बजाये चुनाव खर्च ही प्रमुख बन गया है। बल्कि इसके लिये होड़ लग जाती है कि कौन कितना अधिक खर्च करता है। राजनीतिक दलों के पास यह धन उद्योगपतियों से कैसे आता है और सरकार बनने पर किस शक्ल में वापिस किया जाता है और उसका भ्रष्टाचार, मंहगाई और बेरोज़गारी पर कैसे प्रत्यक्ष/ अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है इस पर महींनो बहस की जा सकती है और ढ़ेरों लिखा जा सकता है।
इसलिये आज जब यह मुद्दा राष्ट्रपति के माध्यम से सार्वजनिक बहस का विषय बना है तो इस पर ईमानदारी और गंभीरता से विचार कर लिया जाना चाहिये। इस संद्धर्भ में इसी के साथ जुड़े कुछ प्रसांगिक विषयों पर भी बात कर ली जानी चाहिये। इस समय विधानसभाओं से लेकर संसद तक आपराधिक छवि के सैंकड़ो माननीय बन कर बैठे हुए हैं। हर चुनाव के बाद यह आंकड़े आते हैं, चिन्ता व्यक्त की जाती है लेकिन परिणाम कोई नहीं निकलता। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह निर्देश दे रखे हैं कि माननीयों से जुड़े आपराधिक मामलों में एक वर्ष के भीतर फैसला आ जाना चाहिये चाहे इसके लिये दैनिक आधार पर सुनवाई क्यों न करनी पड़े। इसके लिये विशेष अदालतें तक गठित करने की बात की गयी है लेकिन इसका अब तक कोई परिणाम नहीं निकला है। आपराधिक छवि के व्यक्ति का भी यही तर्क होता है कि वह जनता की अदालत से चुनकर आया है। यहां यह सवाल उठता है कि क्या जब वह व्यक्ति चुनाव लड़ता है तो क्या उसका सारा रिकॉर्ड जनता के सामने आ पाता है। क्या जनता को पता होता है कि उसके खिलाफ किस तरह के कितने आपराधिक मामले कब से चल रहे हैं। आपराधिक छवि के लोगों को चुनाव लड़ने का अधिकार ही न रहे इसको लेकर अभी तक न तो चुनाव आयोग, न ही सर्वोच्च न्यायालय और न ही संसद कोई व्यवस्था दे पायी है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने भी देश की जनता को यह वायदा किया था कि वह संसद को अपराधियों से मुक्त करवायेंगे। लेकिन यह वायदा पूरा नहीं हुआ है।
ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि यदि राजनैतिक दलों में इस पर सहमति न बन पाये तो क्या यह विचार जुमला बनकर ही रह जाना चाहिये? आज चुनाव राजनैतिक दलों ने अपने बहुआयामी चुनाव प्रचार अभियानों से इतना महंगा बना दिया है कि यह केवल राजनैतिक दलों के ही बस की बात बनकर रह गया है। इसी कारण से हर राजनैतिक दल अपराधियों को अपना उम्मीदवार बना रहा है। धन और बाहुबल के सहारे जनता की अदालत से जीतकर आ रहे हैं। राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिये जनता से ऐसे ऐसे वायदे कर लेते हैं जिन्हें कानूनन सार्वजनिक रिश्वतखोरी की संज्ञा दी जा सकती है लेकिन ऐसे वायदों का संज्ञान न तो चुनाव आयोग ले रहा है और न ही संसद तथा सर्वोच्च न्यायालय। फिर ऐसे वायदों को सरकार बनने के बाद कर्ज लेकर पूरा किया जाता है। ऐसे में राजनीतिक दलों पर बंदिश लगा दी जानी चाहिये कि सार्वजनिक रिश्वतखोरी की परिधि में आने वाले वायदे न किये जायें और ऐसा करने वाले दलों को चुनाव से बाहर कर दिया जाना चाहिये। दूसरा जिस भी व्यक्ति के खिलाफ कोई भी आपराधिक मामला किसी भी स्तर पर लम्बित है उसे भी चुनाव लड़ने का अधिकार न दिया जाये। राजनैतिक दलों पर भी चुनाव खर्च की सीमा होनी चाहिये और आचार संहिता की उल्लंघना को आई पी सी के तहत दण्डनीय अपराध बना दिया जाना चाहिये। यदि यह कदम भी उठा लिये जाते हैं तो निश्चित रूप से हमारी विधानसभाओं से लेकर संसद तक के चरित्र में एक बड़ा बदलाव आ जायेगा। आज की व्यवस्था में तो उम्मीदवार के साथ आया शपथ पत्र भी सार्वजनिक बहस का विषय नहीं बन पाता है। राजनीतिक दलों के आगे उनके अपने ही उम्मीदवार बौने बन कर रह जाते हैं। आज पहला सुधार तो यह लाना होगा कि उम्मीदवार दलों के व्यवहारिक बन्धक होकर ही न रह जायें।