शिमला/शैल। जब सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के विरोध में लोग सड़कों पर उत्तर आयें! सर्वोच्च न्यायालय के ही वरिष्ठतम चार जज पत्रकार वार्ता के माध्यम से अपनी बात को जनता के सामने रखने के लिये विवश हो जायें संसद में विपक्षी दल देश के चीफ जस्टिस के खिलाफ महाअभियोग लाने पर सोचने लग जायें तब निश्चित रूप से यह स्वीकारना ही होगा कि अब सही में ही देश के लोकतन्त्र पर खतरा मंडराने लगा है क्योंकि यह सब देश में इन्ही दिनो घटा है। अनुसूचित जाति और जनजाति अत्याचार, अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत एक मामला अपील उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील में सर्वोच्च न्यायालय में आया था। सर्वोच्च न्यायालय के दो जजों पर आधारित खण्डपीठ ने इस मामले पर अपना फैसला देते हुए मूल अधिनियम में कुछ संशोधन सुझाते हुए यह प्रावधान कर दिया कि अब इस अधिनियम के तहत आयी शिकायतों पर तुरन्त गिरफ्तारी करने से पहले मामले की जांच कर ली जाये। इस जांच के साथ ही इसमें अन्तरिम जमानत का प्रावधान भी कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से पहले मामलों में जांच और अग्रिम जमानत का प्रावधान नही था। सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला देने से पहले इसमें केन्द्र सरकार से भी अपना पक्ष रखने को कहा था और केन्द्र ने अपना पक्ष रखा था। केन्द्र ने अपना पक्ष रखते हुए इस अधिनियम के प्रावधानों के प्रति लचीला रूख अपनाया था जिससे यह संकेत और संदेश गया कि भारत सरकार भी इसमें अब नरम रूख रखती है। इस पृष्ठभूमि में जब यह फैसला आया तो पूरे अनुसूचित जाति और जनजाति समाज में यह संदेश चला गया कि अब उनके खिलाफ अपराध बढ़ सकते हैं। इस समाज के पास ऐसी आशंका के लिये पर्याप्त आधार भी था क्योंकि पिछले दिनो गौ रक्षा आदि के नाम पर इनके खिलाफ ऐसे अपराध घट चुके हैं। इस आशंका के कारण यह समाज इस फैसले के विरोध में सड़कों पर उत्तर आया। यह विरोध कई जगहों पर हिंसक भी हो गया है। अब इस विरोध का विरोध करने के लिये उच्च जातियों के लोग भारत बन्द करने जा रहे हैं। इस बन्द के दौरान पहले से भी ज्यादा हिंसा होने की संभावनाओं की आशंका बनी हुई है।
सर्वोच्च न्यायालय का फैसला अनुसूचित जाति एवम् जनजाति अत्याचार निावरण अधिनियम को लेकर आया है लेकिन इस फैसले को एकदम आरक्षण के आईने में देखा जा रहा है। एकदम आरक्षण समाप्त करने की आवाज़ उठाई जा रही है। केन्द्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ रिव्यू याचिका भी दायर कर दी है जिस पर अदालत ने अपने पूर्व के फैसले पर स्टे नही दिया है। सत्तारूढ़ भाजपा के अध्यक्ष अमितशाह ने ब्यान देकर कहा है कि आरक्षण समाप्त नही होगा और किसी को भी समाप्त नही करने दिया जायेगा। अमितशाह के इस ब्यान से यह स्पष्ट हो जाता है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का अन्तिम परिणाम एक बार फिर आरक्षण को लेकर आन्दोलन और एक बड़ी बहस होने जा रहा है क्योंकि जब से केन्द्र में मोदी सरकार आयी है तब से देश के कई राज्यों में आरक्षण को लेकर आन्दोलन सामने आ चुके हैं और हर आन्दोलन में अपने लिये आरक्षण की मांग करते हुए यह साफ कहा है कि यदि उन्हे आरक्षण नही दिया जा सकता तो अन्य का भी आरक्षण समाप्त कर दिया जाये। इसी के साथ संघ नेतृत्व भी आरक्षण पर नये सिरे से विचार करने की बात कर चुका है। स्वयं संघ प्रमुख मोहन भागवत के ब्यान इस संद्धर्भ में आ चुके हैं। आरक्षण के विरोध में स्व. वीपी सिंह सरकार के समय में यह देश एक बहुत ही भयानक आन्दोलन देख चुका है। उस समय मण्डल आयोग की सिफारिशों के विरोध में आत्मदाह तक हो चुके हैं। मण्डल विरोध का संचालन संघ परिवार के हाथों में उसी तरह था जिस तरह अन्ना आन्दोलन का संचालन संघ परिवार के हाथों में था। वीपी सिंह की सरकार गिरने के साथ ही यह आन्दोलन थम गया था लेकिन आरक्षण अपनी जगह जारी रहा।
आरक्षण विरोध के उस आन्दोलन के बाद केन्द्र में पहली बार भाजपा की इतने बहुमत के साथ सरकार बनी है। भाजपा और संघ पर उन परिवारों का दबाव आज भी बना हुआ है जिनके बच्चों ने आरक्षण के खिलाफ आत्मदाह किये थे। इसलिये यह स्वभाविक है कि यह लोग तो आरक्षण की समाप्ति चाहेंगे ही। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से वातावरण बन ही गया है क्योंकि इस फैसले से पहले सर्वोच्च न्यायालय की जजों पर आधारित संविधान पीठ इसी अधिनियम के प्रावधानों पर फैसला देते हुए इन्हे जायज ठहरा चुकी है। इस तरह सर्वोच्च न्यायालय के एक ही विषय पर दो अलग -अलग फैसले होने इन वर्गों को आशंकित होने का पूरा माहौल बना हुआ है। आरक्षण विरोधी भी इस फैसले की व्याख्या अपने हितों के मुताबिक करेंगें। इस तरह जो माहौल बन रहा है उससे यह लग रहा है कि आने वाले लोकसभा चुनावों में आरक्षण एक केन्द्रीय मुद्दा बनकर उभरेगा। जबकि आरक्षण के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय मण्डल आन्दोलन के समय ही इसके क्रिमी लेयर का प्रावधान कर दिया था। यदि इस क्रिमी लेयर का प्रावधान का सही में अनुपालन हुआ होता तो शायद आज आरक्षण को लेकर आन्दोलन तो दूर इस पर शायद चर्चा तक नही होती लेकिन सरकारों ने इसका पालन करने की बजाये हर बार इस लेयर का दायरा ही बढ़ाया, जबकि दूसरी हकीकत यह है कि जब से केन्द्र से लेकर राज्यों तक सरकारे कर्ज के बोझ में है और नियमित नौकरीयों की जगह पर कांट्रैक्ट और आऊट सोर्स का चलन कर दिया है तबसे सीधे नौकरीयां रही ही नहीं है और कांट्रैक्ट तथा आऊट सोर्स पर आरक्षण का अनुबन्ध लागू ही नही होता है। ऐसे में आरक्षण को लेकर चलने वाली हर बहस आन्दोलन से सरकारों को ही फायदा होगा क्योंकि कांट्रैक्ट और आऊट सोर्स तो बहस के विषय ही नही बन पायेंगे और शायद सरकार चाहती भी यही है। यह मुद्दा ही इतना बड़ा बना दिया जायेगा कि इसके सामने जम्मू कश्मीर से धारा 370 का हटाना और यूनिफाईड सिविल कोड लाने जैसे सारे वायदे इसमें दब जायेंगे।