चुनाव आयोग ही नही पूरी नौकरशाही पर बड़ा सवाल है अदालत का फैसला

Created on Tuesday, 03 April 2018 07:18
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। केन्द्र की मोदी सरकार और केन्द्र शासित दिल्ली प्रदेश की केजरीवाल सरकार में राजनीतिक टकराव इनके गठन से ही शुरू हो गया था यह हर आदमी जानता है। क्योंकि मोदी के नेतृत्व में भाजपा को 2014 के लोकसभा चुनावों में अप्रत्याशित प्रचण्ड बहुमत मिला था बल्कि यह कहना ज्यादा संगत होगा कि इस चुनाव के बाद ही सही मायनों में भाजपा एक राष्ट्रीय पार्टी बनी थी। लेकिन केन्द्र के इन चुनावों के बाद दिल्ली प्रदेश की विधानसभा के लिये चुनाव हुए और यहां पर मोदी की नाक के नीचे से आम आदमी पार्टी ने केजरीवाल के नेतृत्व मे सत्ता पर कब्जा कर लिया बल्कि भाजपा को शर्मनाक हार भी दी। जबकि दिल्ली को भाजपा का गढ़ माना जाता था। दिल्ली की यह हार भाजपा के माथे पर एक बहुत बड़ा राजनीतिक कलंक है। इस हार से असहज़ भी मोदी सरकार ने केजरीवाल सरकार को फेल करने और उसे गिराने तक का हर संभव प्रयास किया है यह भी देश के सामने है। राजनीति में सत्ता प्राप्ति ही एक मात्र लक्ष्य रहता है और इसके लिये साधनों की शुचिता कोई मायने नही रखती है। यह ईवीएम मशीनों और कैम्ब्रिज एनालिटिका पर उठे सवालों से पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है। लेकिन सत्ता की इस भूख के लिये जब संवैधानिक स्वायतता प्राप्त संस्थानों को साधन के रूप में इस्तेमाल किया जाने लग पड़े तो निश्चित रूप से यह मानना पडे़गा कि सही में अब लोकतन्त्र के लिय एक बड़ा खतरा पैदा हो गया है।
चुनाव आयाोग एक संवैधानिक स्वायत संस्था है। इसकी इसी गरिमा और महता के कारण इसमें देश के वरिष्ठत्तम नौकरशाहों को बतौर चुनाव आयुक्त नियुक्त किया जाता है। चुनाव आयुक्तों को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों की समकक्षता हासिल है और हटाने के लिये वैसी ही प्रक्रिया अपनाई जाती है। राष्ट्रपति भी चुनाव आयोग की अन्तिम राय को मानने के लिये बाध्य है। राष्ट्रपति चुनाव आयोग की किसी राय पर स्पष्टीकरण तो मांग सकता है लेकिन चुनाव से जुडे मामलों में राष्ट्रपति चुनाव आयोग की राय को खारिज नही कर सकता है। इस स्थिति से यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारे लोकतन्त्र में चुनाव आयोग का स्थान क्या है। इसीे गरिमा की यह मांग भी है कि चुनाव आयोग हर स्थिति में अपनी निष्पक्षता और विश्वसनीयता बनाये रखे। लेकिन आम आदमी पार्टी के बीस विधायकों को लेकर जिस तरह से चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति को अपनी राय भेजी है और उस राय को दिल्ली उच्च न्यायालय ने जिस तरह से Bad in law for Failure to comply with the principles of natural justice  करार दिया है। उससे न केवल चुनाव आयोग की ही विश्वसनीयता सवालों में आ गयी है। वरन् इससे पूरे देश की नौकरशाही पर गंभीर सवाल खड़ेे हो जाते हैं। विश्वसनीयता पर लगे यह दाग लोकतन्त्र के लिये आने वाले समय में कितना बड़ा संकट बन जायेंगे इसका अन्दाजा लगाना आसान नही है। क्योंकि इससे यह संदेश गया है कि चुनाव आयोग एक संवैधानिक स्वायत संस्थान न होकर सरकार का एक contractural  कार्यालय बनकर रह गया है।
स्मरणीय है कि दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने 13 मार्च 2015 को अपने 21 विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त किया था। इस नियुक्ति को राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा ने दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती दी। राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा का आरोप था कि नियुक्ति को उपराज्यपाल की स्वीकृति हासिल नही है क्योंकि केन्द्र शासित प्रदेश होने के नाते उपराज्यपाल की स्वीकृति अनिवार्य है। राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा की याचिका पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने 8 सितम्बर 2016 को फैसला देते हुए इन नियुक्तियों को रद्द कर दिया। इसी बीच 22.6.15 को एक वकील प्रशांत पटेल ने राष्ट्रपति को इन विधायकों के खिलाफ शिकायत भेज दी कि यह लोग लाभ का पद भोग रहे हैं इसलिये विधायक नही रह सकते। इस शिकायत को 22.7.15 को राष्ट्रपति कार्यालय के अवर सचिव ने इसे चुनाव चुनाव आयोग के ध्यानार्थ भेज दिया लेकिन 24.08.2015 को चुनाव आयोग के अवर सचिव ने इसे वापिस भेज दिया कि यह उचित संद्धर्भ पत्र नही है। इसके बाद राष्ट्रपति सचिवालय के निदेशक ने पुनः आयोग को पत्र भेजा लेकिन इस पत्रा को भी वापिस भेज दिया। इस पर तीसरी बार राष्ट्रपति सचिवालय के सचिव ने चुनाव आयोग को पत्र भेजा। इस पत्र पर चुनाव आयोग ने विधायकों को नोटिस भेजा। इस नोटिस के जवाब में फैसले का इन्तज़ार किया जाये। यह फैसला 8 सितम्बर 2016 को आया और उसके बाद अगली कारवाई शुरू हुई। जिसमें उत्तर और एतराज आदि चले। इसी बीच चुनाव आयुक्त ओपी रावत कुछ विधायकों ने पक्षपात का आरोप लगा दिया। इस आरोप से आहत होकर 19.4.17 को रावत ने अपने को इस मामले से अलग कर लिया। इसके बाद 23.6.17 को आयोग ने विधायकों के एतराजों को अस्वीकार करते हुए यह आदेश किया कि मामले की सुनवाई के लिये अगली तारीख तय की जायेगी और उसकी सूचना इन विधायकों को दे दी जायेगी लेकिन 23.6.17 के बाद मामले की सुनवाई के लिये न कोई तारीख लगी और न ही उसकी कोई सूचना इन विधायकों को दी गयी।
इसके बाद सीधे 19.1.18 को चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति को भारी भरकम राय भेज दी। इस राय पर मुख्य चुनाव आयुक्त ए केे ज्योति, चुनाव आयुक्त ओपी रावत और चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा तीनों के हस्ताक्षर दर्ज है। चुनाव आयोग की इस सिफारिश पर 20.1.18 को राष्ट्रपति ने भी अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी और इन विधायकों की सदस्यता रद्द कर दी गयी। इस पर विधायकों ने चुनाव आयोग की राय को इस आधार पर चुनौती दी कि जब ओपी रावत ने 19.4.17 को अपने को मामले से अलग कर लिया था तो इनको सुचित किये बिना वह मामले से पुनः संवद्ध कैसे हो गये क्योंकि इसी अलग होने के कारण वह 23.6.17 के आदेश में हस्ताक्षरी नहीं है। फिर 23.6.17 के बाद कब मामले की तारीख लगी और उनको सूचना क्यों नही दी गयी। फिर 19.1.18 को ही तीसरे चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने आयोग में पदभार ग्रहण किया है। उनके सामने कभी मामले की सुनवाई हुई ही नही है। वह मामले से संवद्ध रहे ही नही है ऐसे में वह 19.1.18 के फैसले में हस्ताक्षरी कैसे हो सकते हैं। इससे प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त की उल्लंघना होती है।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने 79 पृष्ठों के फैसले में ऐसे सवाल खड़े किये जिनसे चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पूरी तरह धूल में मिल जाती है। ऐसा लगता हैं कि इन विधायकों को येन केन प्रकारेण विधानसभा से बाहर करने के लिये आयोग पर कोई बड़ा दबाव था। लोकतन्त्र की रक्षा के लिये आयोग के इस आचरण पर एक बड़ी बहस उठनी चाहिये ताकि नौकरशाही भविष्य में इस तरह का आचरण करने से पहले कुछ विचार अवश्य कर ले। जिन चुनाव आयुक्तों की निष्पक्षता पर सवाल उठे हैं उन्हे नैतिकता के आधार पर स्वयं ही देशहित में अपने पदों से त्यागपत्र दे देना चाहिये।