शिमला/शैल। सुक्खू सरकार पहले दिन से ही वित्तीय संकट में चल रही है इसीलिये इस सरकार को पदभार संभालते ही जनवरी से मार्च तक ही कर्ज लेना पड़ गया था। इस कर्ज के आंकड़े डॉ.राजीव बिंदल ने आर.टी.आई. के माध्यम से जारी किये थे। मुख्यमंत्री सुक्खू ने प्रदेश की जनता को पदभार संभालते ही कठिन वित्तीय स्थिति की चेतावनी भी दे दी थी। मुख्यमंत्री इस वित्तीय स्थिति के लिये पूर्व की सरकार को दोषी करार देते आ रहे हैं। इस कठिन वित्तीय स्थिति से बाहर निकलने के लिये इस सरकार ने जहां कहीं भी संभव था वहां पर टैक्स लगाने का काम किया है। सरकार द्वारा प्रदान की जा रही हर सुविधा का शुल्क बढ़ाया है। डिपो में मिलने वाले सस्ते राशन के दामों में भी दोगुनी से ज्यादा कीमत बढ़ाई है। यह जानकारी सदन में एक सवाल के जवाब में आयी है। इस सरकार ने पिछली सरकार द्वारा अपने कार्यकाल के अंतिम छः माह में लिये फैसले बदल दिये थे। इन छः माह में खोले गये सारे संस्थान बंद कर दिये गये थे। सरकार ने अपनी ओर से वित्तीय स्थिति को सुधारने के लिये हर संभव प्रयास किया है। लेकिन जितना प्रयास किया गया उसी अनुपात में स्थिती बद से बदतर होती चली गयी और इसी स्थिति के कारण आज हर कर्मचारी को तय समय पर वेतन का भुगतान नहीं हो पा रहा है और न ही पैन्शनरों को समय पर पैन्शन का भुगतान हो पा रहा है। जबकि हर माह औसतन एक हजार करोड़ का कर्ज यह सरकार लेती आ रही है। बल्कि जिस अनुपात में यह कर्ज लिया जा रहा है उसके मद्देनजर यह सवाल उठना शुरू हो गया है कि आखिर इस कर्ज का निवेश हो कहां रहा है। कैग ने भी अपनी रिपोर्ट में यह चिन्ता व्यक्त की है की कर्ज का 70% सरकार के वेतन पैन्शन और ब्याज के भुगतान पर खर्च हो रहा है। इस परिदृश्य में यह स्वभाविक है कि जिस अनुपात में कर्ज बढ़ेगा उसी अनुपात में नियमित और स्थायी रोजगार में कमी आती चली जायेगी।
यह सरकार विधानसभा चुनाव में दस गारंटियां बांट कर सत्ता में आयी थी। प्रदेश में सत्ता परिवर्तन में यहां का सरकारी कर्मचारी, बेरोजगार युवा और महिलाएं महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसलिये कर्मचारियों को पुरानी पैन्शन योजना की बहाली की गारंटी दी। बेरोजगार युवाओं को पांच वर्ष में पांच लाख नौकरियां देने का वायदा किया गया था जिसके मुताबिक हर वर्ष एक लाख नौकरी दी जानी थी। 18 वर्ष से 59 वर्ष की हर महिला को 1500 रूपये प्रतिमाह देने का वायदा किया गया और इसके तहत प्रदेश भर से 18 लाख महिलाओं को यह लाभ दिया जाना था। परन्तु आज प्रति वर्ष एक लाख नौकरियां देने के स्थान पर इस संबंध में पूछे गये प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष हर सवाल के जवाब में सदन में यही कहा गया की सूचना एकत्रित की जा रही है। कर्मचारियों को ओ.पी.एस. देने के मामले में निगमों-बोर्डों के कर्मचारी अभी तक इस लाभ से वंचित हैं और हर दिन इसकी मांग कर रहे हैं। सरकार ओ.पी.एस. की जगह अब यू.पी.एस. की बात करने लग पड़ी है। कर्मचारियों को महंगाई भत्ते की किस्तों की अदायगी यह सरकार नहीं कर पायी है 11% का एरियर खड़ा हो गया है। संशोधित वेतनमानों का भुगतान नहीं हो पाया है। महिलाओं को 1500 प्रतिमाह दिये जाने का आंकड़ा 35687 महिलाओं पर ही आकर रुक गया है। जबकि वायदा 18 लाख महिलाओं से किया गया था। जब यह सवाल पूछा गया कि प्रदेश में कितनी महिलाओं को विभिन्न महिला योजनाओं के तहत कितना लाभ मिल रहा है तो जवाब में कहा गया की सूचना एकत्रित की जा रही है।
सरकार से नियुक्त सलाहकारों को लेकर प्रश्न पूछा गया तो जवाब दिया गया की सूचना एकत्रित की जा रही है। निगमों/बोर्डों में नियुक्त अध्यक्षों/उपाध्यक्षों/सदस्यों को लेकर पूछे गये प्रश्न का जवाब भी सूचना एकत्रित की जा रही है दिया गया। रोजगार को लेकर पूछे गये प्रश्नों का जवाब भी सूचना एकत्रित की जा रही है दिया गया। सदन में तो इस तरह के जवाब से तो थोड़ी देर के लिये बचा जा सकता है लेकिन जिस जनता को इन सवालों से फर्क पड़ता है उसे कैसे चुप कराया जायेगा क्योंकि उसके सामने तो हर सवाल खुली किताब की तरह है। आज सरकार ने निकाय चुनाव दो वर्ष के लिये ओ.बी.सी. आरक्षण के नाम पर टाल दिये हैं। संभव है कि पंचायत चुनावों को भी आपदा अधिनियम लागू होने के कारण टालने का आधार बन पाये। इस तरह सरकार चुनावी परीक्षा से तो बच जायेगी और उसका कार्यकाल निकल जायेगा। लेकिन इस तरह से विधानसभा चुनावों के समय सरकार क्या करेगी? अभी जब निकाय और पंचायत चुनावों की परीक्षा से बचा जा सकता है तो फिर संगठन का गठन भी कुछ समय के लिये टाले रखने से कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा।
शिमला/शैल। हिमाचल सरकार के वित्तीय प्रबंधन पर जो चिंता कैग रिपोर्ट में व्यक्त की गयी है उससे भविष्य को लेकर गंभीर सवाल खड़े हो जाते हैं। बढ़ता कर्ज भार और उसके मुकाबले में घटता राजस्व एक ऐसी स्थिति के प्रति गहरा संकट और संदेश है जिस पर यदि समय रहते अंकुश न लगाया गया तो स्थितियां बहुत भयानक हो जायेंगी। क्योंकि रिपोर्ट के मुताबिक जो कर्ज उठाया जा रहा है उसका 64% से 70% तक सरकार वेतन, पैन्शन और ब्याज की अदायगी पर खर्च कर रही है और विकासात्मक कार्यों के लिये जिन से राजस्व पैदा होगा सिर्फ 30% ही बचता है। जबकि सरकार जो भी कर्ज लेती है वह विकास कार्यों में निवेश के नाम पर लेती है। क्योंकि प्रतिबद्ध खर्चाे के लिए कर्ज उठाने का नियमों में कोई प्रावधान ही नहीं है। प्रतिबद्ध खर्च सरकार को अपने ही संसाधनों से पूरे करने होते हैं और यह संसाधन है ही नहीं। इसके लिये गलत बयानी करके विकास के नाम पर कर्ज उठाया जाता है और इसी से सरकार के वित्तीय प्रबंधन का कौशल सामने आता है। सुक्खू सरकार ने जब सत्ता संभाली थी तब प्रदेश का कुल कर्जभार 70000 करोड़ के करीब था जो अब बढ़कर एक करोड़ पहुंच गया है। हर माह सरकार को करीब एक हजार करोड़ का कर्ज लेना पड़ रहा है। चालू वित्त वर्ष में सरकार की कर्ज लेने की सीमा 7000 करोड़ और अभी तक सरकार 6500 करोड़ के करीब कर्ज ले चुकी है। अगले आने वाले समय में कैसे जुगाड़ किया जायेगा यहां एक बड़ा सवाल बनता जा रहा है।
सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि इतना कर्ज उठाकर भी यह सरकार पिछली देनदारियां पूरी नहीं कर पायी है। यह सवाल उठने लग पड़ा है कि आखिर कर्ज का निवेश हो कहां रहा है। सरकार लगातार यह आरोप लगाती आ रही है कि उसे केन्द्र की ओर से पूरा सहयोग नहीं मिल रहा है। जबकि सदन के पटल पर सवालों के जवाब में आये आंकड़ों के अनुसार यह आरोप आधारहीन हो जाता है। क्योंकि आपदा प्रबंधन में ही 31-7-2025 तक तीन वर्षों में 3578 करोड़ 63 लाख सरकार को मिले हैं। एडीबी से चार परियोजनाओं के लिए दो वर्षों में 31-7-2025 तक 625 करोड़ 87 लाख मिले हैं। जल शक्ति विभाग में 1-1-23 से 31-7-2025 तक 1598 करोड़ 76 लाख 22900 रुपए मिले हैं। स्वास्थ्य विभाग में चल रही विभिन्न योजनाओं के लिए 1877.24 करोड़ मिले हैं। लेकिन स्वास्थ्य विभाग में केन्द्र से इतनी धनराशि मिलने के बाद भी आयुष्मान भारत और हिम केयर में 657 करोड़ की देनदारियां पड़ी हुई हैं। कर्मचारियों के मैडिकल बिलों का भुगतान नहीं हो रहा है। लेकिन वित्तीय प्रबंधन कमजोर होने के कारण केन्द्र से मिला 1024 करोड़ यह सरकार खर्च नहीं कर पायी और यह पैसा केन्द्र को वापस कर दिया गया। इसी तरह 14 मामलों के लिये 711 करोड़ का अनुपूरक बजट में प्रावधान किया गया और अन्त में यह सामने आया कि इन मामलों के लिये मूल बजट में जो प्रावधान किया गया था वह ही खर्च नहीं हो पाया। इसी तरह 40 परियोजनाओं के लिये जारी किये गये बजट में से एक पैसा भी खर्च नहीं किया गया।
संसाधनों के नाम पर सरकार ने दस उपकर लगा रखे हैं पंचायती राज संस्था मार्च 99 से, मोटर वाहन पर सैस 1-4-2017 से, गऊ धन विकास निधि 1-8-2018 से, एम्बुलैन्स सेवा फण्ड 1-8-2018 से, कोविड सैस 1-6-2020 से 2023 तक, मिल्क सैस 1-4-2023 से, प्राकृतिक खेती सैस 1-4-2024 से, दुग्ध उपकर 26-9-2024से, मिल्कऔर पर्यावरण सैस 10-09-2009 से, लेबर सैस 4-12-2009 और 2023 से। इन उपकरों से अब तक सरकार 762 करोड़ 13 लाख 60421.90 पैसे कमा चुकी है। यही नहीं सुक्खू सरकार ने ही जो कर और शुल्क लगाये हैं उनसे अब तक 5200 करोड़ अर्जित कर चुकी है। यदि सरकार द्वारा रखे गये तीन वर्षों के बजटों का आकलन किया जाये तो इनमें कुल आय और खर्चे में जो घाटा दिखाया गया है उसके आंकड़े उठाये गये कर्ज से मेल नहीं खाते हैं। अब जब इस वर्ष लिये जाने वाले कुल 7000 करोड़ के कर्ज में अब बचे ही एक हजार से कम है तो अगले महीनों का प्रबंध कैसे होगा? निश्चित है कि आने वाले समय में वेतन और पैन्शन का सुचारु भुगतान कैसे हो पायेगा यह बड़ा सवाल बनता जा रहा है। क्योंकि जनता पर और कर्ज भार बढ़ाना संभव नहीं होगा और राजनीतिक मित्रों को दी गयी ताजपोशियां और आर्थिक लाभों में कटौती नहीं हो पायेगी। इस परिदृश्य में अगला वित्तीय प्रबंधन सरकार के लिए कसौटी हो जायेगा।
शिमला/शैल। क्या हिमाचल भी राजनीतिक तूफान की ओर बढ़ रहा है? क्या प्रदेश सरकार संकट में घिर सकती है? यह सवाल पूर्व विधायक और देहरा विधानसभा उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी रहे होशियार सिंह द्वारा चुनाव याचिका दायर करने के बाद उठ खड़े हुये हैं। यह माना जा रहा है कि राहुल गांधी की अगवाई में जिस तरह से वोट अधिकार यात्रा में वोट चोरी के आरोप पर भारी जन समर्थन देखने को मिला है। उससे चुनाव आयोग और केंद्र सरकार दबाव में आ चुके हैं। क्योंकि इस बार भाजपा का पर्याय बन चुके प्रधानमंत्री मोदी कुछ व्यक्तिगत सवालों में भी बुरी तरह से घिरते जा रहे हैं। यह सवाल खड़े करने वाले भी उन्हीं के विश्वस्त लोग रहे हैं। फिर वोट चोरी का आरोप ऐसे प्रमाणिक आंकड़ों पर आधारित है जिनका जवाब चुनाव आयोग नहीं दे पाया है। ऐसा माना जा रहा है कि यदि राहुल कि भारत जोड़ो यात्रा भाजपा को लोकसभा में 240 के आंकड़े पर रोक सकती है तो वोट चोरी का आरोप तो और भी बड़ा आरोप है।
ऐसे में इस आरोप का राजनीतिक जवाब देने के लिये कांग्रेस शासित राज्यों में वहां की सरकारों पर हमला बोलकर जवाब देने की रणनीति अपनाई जा सकती है। इसी रणनीति के तहत हिमाचल में ‘‘वोट फॉर कैश’’ का मुद्दा अब उठाया जा रहा है। स्मरणीय है कि देहरा विधानसभा के उपचुनाव में भाजपा की ओर से पूर्व विधायक होशियार सिंह उम्मीदवार थे और कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री की पत्नी श्रीमती कमलेश ठाकुर उम्मीदवार थी। इसी उपचुनाव में आचार संहिता लगने के बाद वोटिंग से एक सप्ताह पहले कांगड़ा केन्द्रिय सहकारी बैंक धर्मशाला द्वारा चुनाव क्षेत्र के सारे महिला मण्डलों को पैसा आबंटित किया गया था। कांगड़ा सहकारी बैंक के अतिरिक्त जिला कल्याण अधिकारी द्वारा भी इसी दौरान कुछ महिलाओं को पैसा आबंटित किया गया था। इस पैसा आबंटन को चुनाव आचार संहिता का खुला उल्लंघन माना गया। प्रदेश विधान सभा के बजट सत्र में हमीरपुर के विधायक आशीष शर्मा ने इस आश्य का एक सवाल भी पूछा था। जब इसका जवाब नहीं आया तब आशीष शर्मा ने अपनी ओर से जुटाई जानकारी सदन के पटल पर रख दी थी। दूसरी ओर होशियार सिंह ने सूचना के अधिकार के तहत इस संबंध में सारी जानकारी जुटायी और 25 मार्च को महामहिम राज्यपाल को संविधान की धारा 191(1) (e) और 192 के तहत शिकायत भेज दी। लेकिन इस शिकायत पर आज तक कोई कारवाई होना सामने नहीं आया है। बल्कि राजभवन से लेकर पूरी भाजपा तक इस मामले पर खामोश रहे।
अब जब केन्द्र में राहुल गांधी की वोट अधिकार यात्रा और वोट चोरी के आरोपों के बाद सारा राजनीतिक वातावरण गंभीर हो उठा है तब हिमाचल में इस प्रकरण के इस तरह से पुनः चर्चा में आने को एक अलग ही नजर से देखा जाने लगा है। इस मामले में विधानसभा में पुनः सवाल पूछा गया तो जवाब आया की सूचना एकत्रित की जा रही है। इस पर यह प्रश्न चिन्ह लगा कि जो सूचना आर.टी.आई. के माध्यम से बाहर आ चुकी है उसे सदन में क्यों नहीं रखा जा रहा है। इन्हीं सवालों के बीच होशियार सिंह ने चुनाव याचिका दायर कर मामला उच्च न्यायालय में पहुंचा दिया है। उच्च न्यायालय में पहुंचने पर स्वभाविक रूप से राजभवन से लेकर पूरी भाजपा में इस पर नये सिरे से हलचल होगी। संविधान और जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 की जानकारी रखने वालों के मुताबिक इस मामले में राज्यपाल की रिपोर्ट पर ही चुनाव आयोग सारी कारवाई कर सकता है क्योंकि पैसा आबंटन के प्रामाणिक दस्तावेज बाहर आ चुके हैं। इस मामले का प्रदेश की राजनीति पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। सूत्रों की माने तो भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व के संज्ञान में यह मामला आ चुका है और राहुल गांधी को जवाब देने के लिये इसे बड़ा कारगर हथियार माना जा रहा है।
शिमला/शैल। हिमाचल में सरकार ही सबसे बड़ा रोजगार प्रदाता है। इसलिए हर राजनीतिक दल सत्ता में आने के लिये बेरोजगार युवाओं को रोजगार उपलब्ध करवाने का आश्वासन देकर उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करता है। कांग्रेस ने भी विधानसभा चुनावों में युवाओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये प्रतिवर्ष एक लाख नौकरियां उपलब्ध करवाने की गारंटी दी थी। पांच वर्षों में पांच लाख नौकरियां दी जानी थी। यह गारंटी अपने में एक बहुत बड़ा वायदा था। जिसका चुनावी परिदृश्य पर असर होना स्वभाविक था और परिणामतः कांग्रेस की सरकार बन गयी। सरकार बनने के बाद इस दिशा में एक मंत्रियों की कमेटी बनायी गयी यह पता लगाने के लिये की सरकार में कुल कितने पद खाली हैं। इस मंत्री कमेटी के मुताबिक सरकार में 70000 रिक्त पद पाये गये। इससे यह उम्मीद बंधी की कम से कम यह 70000 पद तो तुरंत प्रभाव से भर ही लिये जाएंगे। दिसम्बर 2022 में कांग्रेस की सरकार बनी थी और 2024 में विधानसभा में एक प्रश्न के माध्यम से यह पूछा गया था कि अब तक कितने लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाया गया है। इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा गया कि 34980 लोगों को रोजगार उपलब्ध कराया गया है। लेकिन अभी 15 अगस्त के समारोह में मुख्यमंत्री ने 23191 लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाने का आंकड़ा परोस दिया। सतपाल सती और विपिन परमार के प्रश्न के उत्तर में बताया गया कि गत दो वर्षों में विभिन्न विभागों में विभिन्न श्रेणियों के कुल 5960 पद सृजित किये गये और 1780 पद समाप्त किये गये।
रोजगार पर आये इन आंकड़ों से यह प्रश्न उठना स्वभाविक है कि एक लाख रोजगार प्रतिवर्ष उपलब्ध करवाने की गारंटी देकर आयी सरकार की इस क्षेत्र में उपलब्धियां क्या हैं? इसी के साथ यह सवाल और खड़ा होता है कि 15 अगस्त के भाषण के लिये मुख्यमंत्री को सामग्री उपलब्ध करवाने वाले तंत्र ने भी इसका ख्याल नहीं रखा की रोजगार पर पहले विधानसभा में क्या आंकड़ा रखा गया है। सदन में रखी जा रही जानकारी की विश्वसनीयता पर तो कांग्रेस विधायक आर.एस.बाली ने भी गंभीर आक्षेप उनके बिजली बिल को लेकर रखे गये आंकड़े पर उठाया है। आंकड़ों की विश्वसनीयता पर ही तो भाजपा विधायक सुधीर शर्मा का विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव आया है। जबकि यह माना जाता है कि प्रशासन विधानसभा में जानकारियां उपलब्ध करवाने में विशेष सतर्कता बरतता है। क्योंकि जिस प्रश्न का उत्तर आसानी से न मिल रहा हो उसका जवाब देने के लिए सूचना एकत्रित की जा रही है का विकल्प अपना लिया जाता है।
इस परिदृश्य में यदि यह आकलन किया जाये कि अब तक के कार्यकाल में चुनावों के दौरान बांटी गयी गारंटीयों पर सरकार कहां खड़ी है तो इन्हीं आंकड़ों से सरकार की सारी कारगुजारी सामने आ जाती है। क्योंकि प्रदेश में बेरोजगारों का आंकड़ा दस लाख से ऊपर है। भारत सरकार के श्रम मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में बेरोजगारों का आंकड़ा 46% तक जा पहुंचा है। यह सामने आ चुका है कि इस सरकार ने आउटसोर्स पर पुराने लगे बहुत सारे युवाओं को हटाकर नई कंपनियों के माध्यम से नये लोगों को रोजगार देने का प्रयास किया है। आउटसोर्स का मामला अदालत तक भी पहुंच गया था। ऐसे में रोजगार के मामले में सरकार को बहुत ज्यादा चौकस रहना होगा। इस संबंध में स्वतः विरोधी आंकड़े सरकार द्वारा परोसे जाना विश्वसनीयता पर एक बहुत बड़ा प्रश्न खड़ा कर देते हैं और रोजगार ही प्रदेश का मुख्य मुद्दा है। आंकड़ों के विरोधाभास पर तंत्र की भी जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। क्योंकि विपक्ष तो इस स्वतः विरोध को सरकार के खिलाफ एक बड़े हथियार के रूप में इस्तेमाल करेगा।
शिमला/शैल। कांग्रेस संगठन पर अब तक यह फैसला नहीं हो पाया है कि अगला अध्यक्ष कौन होगा और उसकी कार्यकारिणी का स्वरूप क्या होगा ? यह सवाल इसलिये गंभीर और महत्वपूर्ण होता जा रहा है कि जिस तरह राष्ट्रीय स्तर पर राहुल गांधी भाजपा और मोदी सरकार से भीड़ते जा रहे हैं उन्हें उसी अनुपात में कांग्रेस शासित राज्यों से सहयोग चाहिये? इस समय देश के तीन ही राज्यों हिमाचल, कर्नाटक और तेलंगाना में कांग्रेस की सरकारें हैं। इनमें हिमाचल में लम्बे अरसे से प्रदेश से लेकर ब्लॉक स्तर तक सारी कार्यकारणीयां भंग चल रही हैं। कर्नाटक में कांग्रेस नेताओं द्वारा सदन में आरएसएस की प्रार्थना का गायन किया जाना कुछ ऐसे संकेत बनते जा रहे हैं कि कांग्रेस शासित राज्यों में सब ठीक नहीं चल रहा है। राहुल गांधी ने गुजरात के एक आयोजन में यह कहा था कि कांग्रेस में भाजपा के सैल कार्यरत है। लेकिन अभी तक इन सैलों को चिन्हित करके बाहर का रास्ता नहीं दिखाया जा सका है। लेकिन राहुल के कथन के बाद अधिकांश कांग्रेसियों को भाजपा के स्लीपर सैल के रूप में देखा जाने लग पड़ा है। इस समय बिहार में वोट चोरी के आरोप पर जिस तरह का जन आन्दोलन खड़ा होता जा रहा है क्या उसी अनुपात में कांग्रेस शासित राज्यों में भी उसी तरह का राजनीतिक वातावरण तैयार होता जा रहा है ? तो हिमाचल की स्थिति को देखते हुये कहा जा सकता है कि शायद नहीं। हिमाचल में संगठन की कार्यकारणीयां भंग होने के बाद कुछ अरसे तक यह संकेत उभरते रहे कि नई टीम का गठन भी प्रतिभा सिंह के नेतृत्व में ही होगा। लेकिन अब यह सन्देश स्पष्ट होता जा रहा है कि प्रदेश में कांग्रेस का अध्यक्ष भी बदला जायेगा। अभी जिस तरह से वोट चोरी के मुद्दे पर कांग्रेस कार्यालय में आयोजन रखा गया था और उसमें जिस तरह से प्रदेश प्रभारी के सामने ही मुख्यमंत्री सुक्खू और लोक निर्माण मंत्री विक्रमादित्य सिंह के समर्थकों में अपने-अपने नेता के पक्ष में नारेबाजी की गयी उससे स्पष्ट हो गया कि प्रदेश कांग्रेस में सब कुछ अच्छा नहीं चल रहा है। इस नारेबाजी का प्रतिफल यह रहा है कि वोट चोरी का मुद्दा कांग्रेस कार्यालय से बाहर फील्ड में कहीं नहीं जा पाया है। बल्कि अब तो यह चर्चा भी दबी जुबान में चल पड़ी है कि यह नारेबाजी एक तय योजना के साथ की गयी थी कि इसे फील्ड में न ले जाना पड़े। कांग्रेस कार्यालय में हुई नारेबाजी के बाद संगठन के गठन की बात फिर बैक फुट पर चली गयी है। क्योंकि इस नारेबाजी में पार्टी के अन्दर बन चुकी गुटबाजी पूरी तरह खुलकर सामने आ गयी है। इस तरह की नारेबाजी के चलते कांग्रेस का हाईकमान से आया कोई भी निर्देश व्यवहारिक शक्ल नहीं ले पायेगा। इस समय अगले प्रदेशाध्यक्ष को लेकर चल रही खींचतान में यह स्पष्ट हो गया है कि मुख्यमंत्री सुखविंदर सुक्खू इस पद पर किसी अपने विश्वस्त को ही बैठना चाहते हैं। अध्यक्ष के लिये कोई भी मंत्री अपना मंत्री पद छोड़कर यह जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता है। मंत्रियों के बाद पूर्व मंत्रियों कॉल सिंह ठाकुर और आशा कुमारी भी चर्चाओं के अनुसार इसके लिये सहमत नहीं हो पाये हैं। अब मुख्यमंत्री शायद इस पद के लिये हमीरपुर जिले से विधायक सुरेश कुमार को अपनी पसन्द बना सकते हैं। लेकिन इस नाम पर औरों की सहमति हो पायेगी इसको लेकर संशय है। जब प्रदेश में किसी न किसी कारण से संगठन का गठन ही लटकना चला जायेगा तो हाईकमान को राष्ट्रीय मुद्दों पर प्रदेश से कितना व्यवहारिक सहयोग मिल पायेगा यह एक सामान्य समझ की बात है। प्रदेश सरकार इस वर्ष के अन्त में होने वाले निकाय चुनावों को टालने में सफल हो गयी है। बहुत संभव है कि किसी तरह पंचायत चुनावों को भी टालने का जुगाड़ कर ही लिया जायेगा। यह चुनाव ही सरकार के लिये एक परीक्षा होने जा रहे थे। जब यह परीक्षा ही टल जायेगी तो और कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती है और फिर राष्ट्रीय कार्यक्रमों को फील्ड में ले जाने की भी आवश्यकता नहीं रह जाती है।
शिमला/शैल। क्या हिमाचल को कांग्रेस हाईकमान ने अपनी सूची से खारिज कर दिया है? यह सवाल इसलिये उठने लगा है कि प्रदेश कांग्रेस की राज्य से लेकर ब्लॉक स्तर की कार्यकारिणीयां जो पिछले वर्ष नवम्बर में भंग कर दी गयी थी उनका पुनर्गठन अब तक नहीं हो पाया है। प्रदेश में इस वर्ष के अन्त में पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव होने हैं। ऐसे में इन चुनावों की तैयारी कांग्रेस संगठन के तौर पर कैसे और कब कर पायेगी यह सवाल हर कार्यकर्ता के दिमाग में उठने लगा है। राज्य में कांग्रेस की सरकार इसलिये बन पायी थी क्योंकि पार्टी ने विधानसभा चुनावों के दौरान दस गारंटियां प्रदेश की जनता को दी थी। इन गारंटियों पर जमीन पर कितना काम हुआ है यह चुनाव उसकी परीक्षा प्रमाणित होंगे। इन गारंटियों में प्रतिवर्ष प्रदेश के युवाओं को एक लाख रोजगार उपलब्ध करवाने और 18 से 60 वर्ष की हर महिला को 1500 रूपये प्रतिमाह देने पर प्रमुख थे। युवाओं को रोजगार का दावा कितना सफल हो पाया है इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इस दौरान प्रदेश में बेरोजगारी में 9 सितम्बर 2024 को विधानसभा में आये एक प्रश्न के उत्तर के अनुसार वर्ष 2021-22 से वर्ष 2023-24 में 4% की वृद्धि हुई है और उद्योग पलायन करने लग गये हैं। महिलाओं को 1500 रूपये प्रति माह सिर्फ लाहौल स्पीति में ही मिल पाये हैं और जगह नहीं।
प्रदेश सरकार के फैसले भी अब जनता के गले नहीं उतर पा रहे हैं। क्योंकि सरकार एक ओर तो कठिन वित्तीय स्थिति का हवाला देकर जनता पर करों का बोझ लगातार बढा़ती जा रही है और दूसरी ओर इसी कठिन वित्तीय स्थिति में निगमों/बोर्डों के अध्यक्षों/उपाध्यक्षों/सदस्यों का मानदेय बढ़ा रही है। यह बढ़ौतरी भी आपदा काल में हुई है। शिमला से धर्मशाला रेरा कार्यालय को स्थानांतरित करना इसी कड़ी का एक और उदाहरण है। जिन कर्मचारियों ने कांग्रेस को सत्ता में लाने की प्रमुख भूमिका अदा की थी वह सारे वर्ग आज एक बड़े कर्मचारी आन्दोलन के लिये तैयार हो रहे हैं। यह पिछले दिनों कर्मचारी संगठनों के आवाहन पर जूटे अलग-अलग संगठनों की उपस्थिति से प्रमाणित हो गया है। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सेवाओं का फील्ड में क्या हाल है यह जनता के बीच जाने से पता चलता है। आज सरकार की हालत यह हो गयी है कि कर्ज आधारित योजनाओं के अतिरिक्त और कोई काम नहीं चल रहा है। आज कर्ज और करों का निवेश उन योजनाओं पर हो रहा है जिनके परिणाम वर्षों बाद आने हैं। फिर इस कर्ज में भी किस तरह का भ्रष्टाचार हो रहा है उसका खुलासा पूर्व मंत्री धर्मशाला के विधायक सुधीर शर्मा के ब्यान से हो जाता है ।
आज कांग्रेस की सरकारें केवल तीन राज्यों हिमाचल, कर्नाटक और तेलंगाना में ही रह गयी हैं। कांग्रेस की नीतियों और कार्यक्रमों का आकलन यहां की सरकारों की परफारमेन्स के आधार पर होगा। इस समय कांग्रेस नेतृत्व बिहार में चुनाव आयोग से लड़ रहा है। यदि इस लड़ाई में हिमाचल की देहरा विधानसभा के उप-चुनाव में जो कुछ कांग्रेस शासन में घटा है उसका जिक्र उठा दिया गया तो यह सारी लड़ाई कुन्द होकर रह जाएगी। यह दूसरी बात है कि इस मुद्दे पर प्रदेश कांग्रेस और भाजपा में आपसी सहमति चल रही है। लेकिन जिस तरह से प्रदेश सरकार हर रोज जनाक्रोश से घिरती जा रही है उसमें संगठन का आधिकारिक तौर पर नदारद रहना क्या संकेत और संदेश देता है इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। क्योंकि प्रदेश अध्यक्षा स्वयं कई बार यह आग्रह हाईकमान से कर चुकी है की कार्यकारिणी का गठन शीघ्र किया जाये। परन्तु यह आग्रह जब अनसुने हो गये हों तो यही कहना पड़ेगा कि शायद कांग्रेस हाईकमान की सूची से हिमाचल को निकाल ही दिया गया है। क्या हाईकमान के प्रतिनिधि प्रदेश प्रभारीयों ने भी इस और आंखें और कान बंद कर रखे हैं। या आज यह स्थिति आ गयी है कि प्रदेश में कोई भी संगठन की जिम्मेदारी लेने को तैयार ही नहीं हो रहा है।
शिमला/शैल। क्या सुक्खू सरकार विधानसभा द्वारा पारित कार्य निष्पादन नियमों की भी अनदेखी करने लग गयी है। यह सवाल पर्यटन विकास निगम के चौदह होटलों को ओ.एन.एम आधार पर निजी क्षेत्र को सौंपने के प्रस्तावित फैसले पर निगम के ही अध्यक्ष द्वारा एक पत्रकार वार्ता में एतराज उठाये जाने के बाद चर्चा में आया है। पर्यटन निगम अध्यक्ष विधायक आर.एस.बाली ने पत्रकार वार्ता में स्पष्ट कहा है कि निगम की ओर से इस आश्य का कोई प्रस्ताव सरकार को न ही भेजा गया और न ही निदेशक मण्डल द्वारा कभी पारित किया गया। बाली ने यह भी स्पष्ट कहा कि शायद सरकार और मंत्रिमंडल के सामने सारे तथ्य रखे ही नहीं गये हैं। इस समय पर्यटन निगम लाभ कमा रही है और टर्नओवर अढ़ाई वर्ष में 70 करोड़ से बढ़कर 100 करोड़ से ऊपर हो गया है। फिर बीते अढ़ाई वर्षों में पर्यटन निगम को सरकार की ओर से कोई ग्रांट नहीं मिली है। जबकि इसकी मांग कई बार की गयी। ऐसे में स्पष्ट है कि पर्यटन निगम की कार्यशैली में काफी सुधार हुआ है और उसके कर्मचारी निगम को लाभ की ईकाई में बदलने में सफल हो गये हैं। इसलिये जो ईकाई लाभ कमाने में आ गई हो उसकी संपत्तियों को प्राइवेट सैक्टर को सौंपने का कोई औचित्य नहीं बनता। फिर जो चौदह ईकाईयां प्राईवेट सैक्टर को सौंपने का फैसला लिया गया उनके रैनोवेशन के लिये निगम को ही धन उपलब्ध करवाया जाना चाहिये क्योंकि वह बनी हुई इकाइयां है और शीघ्र ऑपरेटिव हो जायेंगी। इनके रखरखाव के लिए एशियन विकास बैंक द्वारा दिये जा रहे कर्ज में से पैसा उपलब्ध करवाया जा सकता है। इस परिदृश्य में सरकार को अपने फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिये।
आर.एस.बाली मुख्यमंत्री के विश्वास पात्रों में गिने जाते हैं। ऐसे में बाली द्वारा यह सार्वजनिक करना कि निगम के प्रस्ताव के बिना ही इस तरह का फैसला ले लिया जाना अपने में कई सवाल खड़े कर जाता है। क्योंकि रूल्स ऑफ बिजनेस के अनुसार किसी भी कार्य का कोई भी प्रस्ताव निगम बोर्ड विभाग द्वारा सरकार में सचिव को भेजा जाता है। उस प्रस्ताव पर सचिव और विभाग के मंत्री में मंत्रणा होती है। यदि सचिव और मंत्री की राय में मतभेद हो तब उस विषय को मंत्रिपरिषद में ले जाया जाता है। यदि मंत्री और सचिव दोनों सहमत हो तो विषय को आगे ले जाने की आवश्यकता नहीं होती है। क्योंकि मंत्री अपने में सक्षम होता है। पर्यटन निगम के चौदह होटल को प्राइवेट क्षेत्र को सौंपने के प्रस्तावित फैसले को विपक्ष ने हिमाचल ऑन सेल की संज्ञा दी है। ऐसे में जब निगम सार्वजनिक रूप से यह कह दे कि उसके यहां से इस आश्य का कोई प्रस्ताव ही नहीं गया तब स्थिति काफी बदल जाती है। क्योंकि आने वाले दिनों में यह फैसले कई विवादों का कारण बनेंगे और तब मंत्रिमंडल की स्वीकृति का भी कोई अर्थ नहीं रह जाता है। सागर कथा मामले में इस तरह की स्थितियां एक समय प्रदेश में घट चुकी हैं। इसलिये पर्यटन विकास निगम के अध्यक्ष का यह खुलासा की उसकी ओर से कोई प्रस्ताव ही नहीं गया और इसके बाद मंत्रिमंडल का फैसला ले लेना अपने में कई सवाल खड़े कर जाता है।
शिमला/शैल। क्या हिमाचल में हर बरसात में ऐसे ही जान माल का नुकसान होता रहेगा? यह सवाल इसलिये उठ रहा है क्योंकि 2023 में भी आयी आपदा के दौरान मण्डी के थुनाग में आयी बाढ़ में बड़ी मात्रा में लकड़ी नालों में बहकर आयी थी। इस बार भी सैंज में बादल फटने से जीवा नाला में आयी बाढ़ में टनों के हिसाब से लकड़ी बहकर पंडोह डैम तक पहुंची है। सैंज में जहां बादल फटा है उस क्षेत्र में एक पॉवर प्रोजेक्ट का काम चल रहा था। यह काम एक इंदिरा प्रियदर्शनी कंपनी के पास है और कंपनी के पास सैकड़ो मजदूर काम कर रहे थे। पॉवर प्रोजेक्ट के काम में कई अनियमितताओं के आरोप लगे हैं जो जांच के बाद ही सामने आ पायेंगे। मजदूरों के पंजीकरण का भी आरोप है इसलिये मौतों के सही आंकड़ों को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं। कांगड़ा के धर्मशाला में भी बादल फटने से बाढ़ आयी है जिसमें कई मजदूर बह गये हैं। इस क्षेत्र में भी ‘सोकनी दा कोट’ में एक पॉवर प्रोजेक्ट का काम चल रहा था जिसके निर्माण में कई अनियमितताओं के आरोप हैं। 2023 में जब बरसात में आपदा आयी थी तब नदियों के किनारे हो रहे खनन को इसका बड़ा कारण बनाया गया था। इस पर मंत्रियों में ही विवाद भी हो गया था। इस समय हिमाचल में चंबा से लेकर किन्नौर शिमला तक करीब साढे पांच सौ छोटी-बड़ी पॉवर परियोजनाएं चिन्हित हैं और अधिकांश पर काम चल रहा है। चंबा में रावी पर चल रही पॉवर परियोजनाओं में 65 किलोमीटर तक रावी अपने मूल बहाव से लोप है। यह तथ्य अवय शुक्ला की रिपोर्ट में दर्ज है और प्रदेश उच्च न्यायालय में यह रिपोर्ट दायर है। स्वभाविक है कि जब पानी के मूल रास्ते को रोक दिया जायेगा तो बरसात की किसी भी बारिश में जब पानी बढ़ेगा तो वह तबाही करेगा ही। अवय शुक्ला की रिपोर्ट का संज्ञान लेकर पॉवर परियोजनाओं में इस संबंध में क्या कदम उठाये गये हैं इसको लेकर कोई रिपोर्ट आज तक सामने नहीं आ पायी है। पॉवर परियोजनाओं के निर्माण से पूरे क्षेत्र का पर्यावरण संतुलन प्रभावित हुआ है और इसका असर गलेश्यिरों के पिघलने पर पढ़ रहा है। लाहौल-स्पीति और किन्नौर में कई परियोजनाओं पर स्थानीय लोगों ने आपत्तियां भी उठाई है और धरने प्रदर्शन भी किये हैं। ग्लेशियरों के पिघलने से कालांतर में परियोजनाओं पर भी प्रभाव पड़ेगा। इसलिये समय रहते इस सवाल पर ईमानदारी से विचार करके कुछ ठोस और दीर्घकालिक उपाय करने होंगे अन्यथा भविष्य में और भी गंभीर स्थितियों का सामना करना पड़ेगा।
2023 में जो लकड़ी थुगान में बहकर आयी थी उसका संज्ञान शायद अदालत ने भी लिया था और उस पर एक रिपोर्ट भी तलब की थी। इस रिपोर्ट में क्या सामने आया है इसको लेकर कोई जानकारी आज तक सामने नहीं आयी है। न ही किसी ने यह दावा किया है कि यह लकड़ी उसकी थी। उस अवैधता पर आज तक पर्दा पड़ा हुआ है। अब सैंज में बादल फटने से जो लकड़ी जीवा नाला से होकर पंडोह तक पहुंची है उसको लेकर भी रहस्य बना हुआ है कि यह लकड़ी किसकी है। टनों के हिसाब से पंडोह डैम में लकड़ी पहुंची है। वन निगम जिसके माध्यम से वन विभाग लकड़ी का निस्तारण करता है उसके उपाध्यक्ष ने साफ कहा है कि यह लकड़ी वन निगम की नहीं है। क्षेत्र के वन विभाग के अधिकारियों ने भी इस लकड़ी के बारे में स्पष्ट कुछ नहीं कहा है इसे बालन की लकड़ी कहकर पल्ला झाड़ने का प्रयास किया है। इस लकड़ी के जो वीडियो सामने आये हैं उनसे स्पष्ट हो जाता है कि यह करोड़ो की लकड़ी है। यदि किसी प्राइवेट आदमी की इतनी मात्रा में वैध लकड़ी इस तरह बह जाती तो वह तो तूफान खड़ा कर देता। परन्तु ऐसा भी कुछ सामने नहीं आया है। टनों के हिसाब से लकड़ी सामने है लेकिन इसका मालिक कोई नहीं है। सरकार के वन विभाग का लकड़ी के निस्तारण का काम वन विभाग के माध्यम से होता है और वन विभाग लकड़ी का मालिक होने से इन्कार कर रहा है तो स्वभाविक है कि यह लकड़ी अवैध कटान की ही है क्योंकि बारिश में आसमान से तो यह टपकी नहीं है? सरकार ने अभी तक इस लकड़ी का स्रोत पता लगाने के लिये कोई कदम नहीं उठाये हैं इस बारे में कोई जांच गठित नहीं की गयी है। वन विभाग का प्रभार स्वयं मुख्यमंत्री के पास है। सरकार में किसी मंत्री ने इस पर कोई सवाल नहीं उठाया है। केवल अखिल भारतीय कांग्रेस प्रवक्ता विधायक कुलदीप राठौर ने इसकी जांच किये जाने की मांग की है। सरकार की ओर से आधिकारिक रूप से इस पर कुछ न कहने से और भी कई सवाल खड़े हो जाते हैं। यहां तक पॉवर प्रोजेक्ट का निर्माण कर रही कंपनी तक सवाल उठने लग पड़े हैं।