शिमला/शैल। शिमला के लिये 24 घंटे जलापूर्ति सुनिश्चित करने के लिए जब नगर निगम शिमला के महापौर और उपमहापौर दोनों पदों पर माकपा का कब्जा था तब विश्व बैंक की सहायता से एक परियोजना पर विचार किया गया था। उस समय के प्रयासों के चलते 2022 में इस परियोजना की डीपीआर 2022 में ही फाइनल हुई। डीपीआर में परियोजना की लागत 490 करोड़ आंकी गयी थी। इस आकलन के बाद अक्तूबर 2022 में इसके लिए निवेदाएं आमंत्रित की गयी और 790 करोड़ की निविदा उसी कम्पनी की आ गयी जिसने पहले निविदा दी थी। 790 करोड़ की निविदा आने पर सवाल उठे। क्योंकि सी पी एच ई ई ओ ने 2022 में ही 490 करोड़ की डीपीआर अनुमोदित की थी। ऐसे में अक्तूबर 2022 में यह रेट बढ़ाकर 790 करोड़ हो जाये तो किसी का भी माथा आवश्यक ठनकेगा ही। इस पर एसजेपीएनएल ने उस समय यह निविदा रद्द कर दी। इसके बाद मार्च 2023 में पुनः निविदायें आमंत्रित की गयी। इस बार भी उन्हीं लोगों ने निविदायें डाली जिन्होंने पहले डाली थी। लेकिन इस बार यह निविदा 920 करोड़ की आयी है।
ऐसे में यह सवाल उठाना स्वभाविक है कि जो डीपीआर 490 करोड़ की आंकलित हुई हो उसकी निविदा एक वर्ष से भी कम समय में ही मूल के दो गुना से भी कैसे बढ़ जाये? क्या डीपीआर बनाने वाले लोग सक्षम नहीं थे? क्या विश्व बैंक के अधिकारियों ने भी इस पर आंख बंद कर ली थी? यह परियोजना कर्ज के पैसे से शक्ल लेगी और इस कर्ज की अदायगी प्रदेश की जनता करेगी। ऐसे में निविदा दरों में इतनी भिन्नता आना कई सवाल खड़े करता है। क्योंकि इसके लिये निविदायें डालने वाले पिछले दो-तीन बार से वही दो लोग हैं। क्या ऐसे में यह आशंका नहीं उभरती की कहीं यह दोनों लोग आपस में मिलकर ही यह खेल तो नहीं खेल रहे हैं। क्या एक वर्ष से कम समय में इसकी दरों में 131% की बढ़ौतरी कैसे हो गयी? जब इस पर 2022 से ही सवाल उठाये जा रहे हैं और पत्र लिखे जा रहे हैं तो उनका जवाब क्यों नहीं दिया जा रहा है। मुख्य सचिव को भी इस बारे में पत्र लिखा गया है लेकिन उस पर कोई कारवाई होना अब तक सामने नहीं आया है।
इसी के साथ यह सवाल भी उठ रहा है की शिमला के लिए 500 करोड़ की स्मार्ट सिटी परियोजना परिकार्यन्वित की गयी थी जो उसके लिये चिन्हित की गयी। 210 परियोजनाओं में शिमला के लिये जलापूर्ति की कोई योजना क्यों नहीं रखी गयी? क्या उसमें शिमला को लोहे का जंगल बनाने से अधिक कुछ नहीं सोचा गया। अब तक स्मार्ट सिटी के नाम पर 868.26 करोड रुपए खर्च किये जा चुके हैं। इसमें कुछ एक कार्यों की व्यवहारिकता पर सवाल भी उठने शुरू हो गये हैं। संजौली से आईजीएमसी तक 23.33 करोड से बने कवर्ड फुटपाथ का औचित्य सवालों में है। इसी तरह 13.50 करोड़ की लागत से बन रही लिफ्ट पर यह सवाल उठ रहा है कि क्या यह लिफ्ट इसमें काम करने वाले कर्मचारियों का वेतन निकाल पायेगी। इसी तरह छोटा शिमला से आयुर्वेद अस्पताल तक 12.78 करोड़ की लागत से बन रहे रास्ते के औचित्य पर सवाल उठ रहे हैं। जल परियोजनाओं पर उठते सवालों से स्मार्ट सिटी योजनाओं के कार्य भी चर्चा में आ गये हैं। देखना रोचक होगा कि सरकार इस पर जांच करवाती है या नहीं।