शिमला/शैल। सुक्खू सरकार में नियुक्त मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्ति को चुनौती देने वाली तीन याचिकाएं प्रदेश उच्च न्यायालय में विचाराधीन है। उच्च न्यायालय ने इन याचिकाओं का संज्ञान लेते हुये सभी मुख्य संसदीय सचिवों को पार्टी बनाकर नोटिस जारी किया है। लेकिन मुख्य संसदीय सचिवों को नोटिस अभी तक तामील नहीं हो पाये है। नोटिस तामील न होने के कारण अदालत को अगली पेशी देनी पड़ती है। नोटिस की तामील ही न हो पाने पर आम आदमी यह आश्वस्त होता जा रहा है कि प्रदेश में सही में प्रशासनिक अराजकता का दौर चल रहा है। क्योंकि मुख्य संसदीय सचिवों को राज्य सचिवालय में कार्यालय और स्टाफ दोनों मिले हुये हैं। यह लोग अपने इन कार्यालयों में बैठकर अपने कार्यों का निष्पादन करते हैं। अपने-अपने विधानसभा क्षेत्रों में भी यह लोग सार्वजनिक कार्यों को बराबर अंजाम दे रहे हैं। यह लोग ऐसे नहीं हैं कि इन्हें उच्च न्यायालय के नोटिस सर्व करने में कोई व्यवहारिक कठिनाइयां आ सकती है। नोटिस तामील न हो पाना केवल प्रशासनिक अराजकता को ही प्रमाणित करता है।
मुख्य संसदीय सचिवों को लेकर जब भी उच्च न्यायालय का फैसला आयेगा उसका प्रदेश की राजनीति पर गंभीर असर पड़ेगा यह तय है। क्योंकि जब पूर्व में स्व.वीरभद्र सिंह के शासन में भी ऐसी ही नियुक्तियां हुई थी और उच्च न्यायालय में उन्हें हिमाचल प्रोटेक्शन फॉर्म के देश बंधु सूद ने चुनौती दी थी तब यह नियुक्तियां अदालत ने रद्द कर दी थी। इसके बाद उच्च न्यायालय के फैसले को सर्वाेच्च न्यायालय में एसएलपी के माध्यम से चुनौती दी गई थी। इसी के साथ एक्ट में कुछ संशोधन करके नया एक्ट पारित कर लिया गया। लेकिन इस एक्ट को भी उच्च न्यायालय में चुनौती दे दी गयी। तब सरकार ने उच्च न्यायालय में एक शपथ पत्र देकर यह कहा था कि जब तक अदालत का फैसला नहीं आ जाता है वह फिर से ऐसी नियुक्तियां नहीं करेगी। इस शपथ पत्र के बाद आवश्यक हो जाता है कि ऐसी नियुक्तियां करने से पहले उच्च न्यायालय के संज्ञान में यह लाया जाता। लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। दूसरी जो एसएलपी सर्वाेच्च न्यायालय में दायर की गयी थी वह असम के मामले के साथ टैग हो गयी थी और उस पर जुलाई 2017 में फैसला आ गया था। इस फैसले में सर्वाेच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि राज्य विधानसभा को इस आश्य का अधिनियम पारित करने का अधिकार ही नहीं है।
ऐसे में सर्वाेच्च न्यायालय के फैसले और प्रदेश सरकार के उच्च न्यायालय में अपने शपथ पत्र के बाद भी मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्ति मंत्रिमण्डल के विस्तार से दो घंटे पहले क्यों की गयी? क्या उस समय पार्टी में भाजपा की सेंधमारी की आशंका हो गयी थी ? या किसी अन्य मकसद के लिये हाईकमान पर दबाव बनाने के लिये यह नियुक्तियां की गयी थी? इन नियुक्तियों में सरकार के अपने ही शपथ पत्र की उल्लंघना की गयी है। उच्च न्यायालय सरकार के शपथ पत्र का संज्ञान लेते हुये इन नियुक्तियों को अवैध घोषित करने के साथ ही नियुक्त हुये मुख्य संसदीय सचिवों को अयोग्य भी ठहरा सकता है इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस मामले में दायर हुई अंतिम याचिका भाजपा विधायकों की है। लेकिन इन लोगों ने इन मुख्य संसदीय सचिवों को उच्च न्यायालय के नोटिस की तामील न हो पाने पर कोई प्रतिक्रिया तक नहीं आ रही है। जबकि नोटिस की तामील प्रशासनिक मामला है। ऐसे में यह सवाल उठने लगते हैं कि कहीं भाजपा नेतृत्व इस मामले में सरकार पर कोई दबाव तो नहीं बना रहा है। शायद इस अघोषित दबाव के कारण ही भाजपा काल के प्रशासन को ही यथास्थिति चलाया जा रहा है और भ्रष्टाचार के प्रति आंख बंद कर ली गयी है।