क्या मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां बहाल रह पायेंगी

Created on Monday, 27 March 2023 13:41
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। सुक्खू सरकार के मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियों को प्रदेश उच्च न्यायालय में चुनौती मिल गयी है। उच्च न्यायालय ने सभी छः मुख्य संसदीय सचिवों को इस मामले में प्रतिवादी बनाने के आग्रह पर नोटिस जारी कर दिये हैं। स्मरणीय है कि स्व. वीरभद्र सिंह के मुख्यमंत्री काल में इस आश्य का एक एक्ट पारित करके संसदीय सचिव नियुक्त किये गये थे। इन्हे तब Citizen Rights Protection Forum ने प्रदेश उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। उच्च न्यायालय ने इन नियुक्तियों को सविधान के 91 वे संशोधन की अवहेलना करार देते हुये रद्द कर दिया था और ऐसे नियुक्त सचिवों को अपने पदों से त्यागपत्र देना पड़ा था। प्रदेश सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में उच्च न्यायालय के फैसले को एसएलपी दायर करके चुनौती दी थी। हिमाचल सरकार द्वारा एसएलपी फाइल करने के दौरान ही सर्वोच्च न्यायालय में असम का ऐसी ही नियुक्तियों का मामला पहुंच गया। सर्वोच्च न्यायालय में इसी मामले के साथ हिमाचल की एसएलपी भी संलगन हो गयी।  Writ Petition (PIL) No.30/2005 was filed on 13.04.2005 in the Hon’ble High Court of Gauhati challenging the constitutional validity of THE ACT. On 24.01.2006, the High Court of Gauhati adjourned the hearing of the said PIL in light of similar matters  involving the same questions of law which had come up for hearing in this Court in SLP No. 22038 of 2005 (State of Himachal Pradesh v. Citizen Rights Protection Forum).

सर्वोच्च न्यायालय में 26 जुलाई 2017 को फैसला आ गया। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में स्पष्ट कहा है कि असम विधानसभा को ऐसा कानून पारित करने का अधिकार ही नहीं था। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि  Article 187. (1) The House or each House of the Legislature of a State shall have a separate secretarial staff: Provided that nothing in this clause shall, in the case of the Legislature of a State having a Legislative Council, be construed as preventing the creation of posts common to both Houses of such Legislature.(2) The Legislature of a State may by law regulate the recruitment, and the conditions of service of persons appointed, to the secretarial staff of the House or Houses of the Legislature of the State. (3) Until provision is made by the Legislature of the State under clause (2), the Governor may, after consultation with the Speaker of the Legislative Assembly or the Chairman of the Legislative Council, as the case may be, make rules regulating the recruitment, and the conditions of service of persons appointed, to the secretarial staff of the Assembly or the Council, and any rules so made shall have effect subject to the provisions of any law made under the said clause.

37 3 offices connected with the legislature and matters incidental to them to read the authority to create new offices by legislation would be a wholly irrational way of construing the scope of Article 194(3) and Entry 39 of List II. Such a construction would be enabling the legislature to make a law which has no rational connection with the subject matter of the entry. “The powers, privileges and immunities” contemplated by Article 194(3) and Entry 39 are those of the legislators qua legislators.
45. For the above-mentioned reasons, we are of the opinion that the Legislature of Assam lacks the competence to make the impugned Act. In view of the above conclusion, we do not see it necessary to examine the various other issues identified by us earlier in this judgement. The Writ Petition is allowed. The impugned Act is declared unconstitutional.


संविधान के जिन प्रावधानों के तहत असम विधानसभा ने संसदीय सचिवों की नियुक्तियों के लिये अपना एक्ट बनाया था स्वभाविक है कि हिमाचल विधानसभा ने भी उन्ही प्रावधानों के तहत अपना एक्ट बनाया है। ऐसे में जब असम विधानसभा को ऐसा एक्ट बनाने की शक्तियां नहीं है तो हिमाचल विधानसभा को भी नहीं हो सकती। हिमाचल की एस एल पी असम के साथ तभी सलंगन हुई थी जब दोनों मामलों में एक जैसे ही कानूनी पक्ष संबद्ध थे। ऐसे में जब असम के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने 26 जुलाई 2017 को असम के खिलाफ अपना फैसला सुना दिया है तो अब हिमाचल उच्च न्यायालय द्वारा हिमाचल के प्रावधानों को बहाल रखने की संभावना बहुत कम है। क्योंकि जब मामला सर्वोच्च तक चला जायेगा। स्व.वीरभद्र सिंह की सरकार में जब संसदीय सचिवों को उच्च न्यायालय के आदेश पर अपने पदों से त्यागपत्र देना पड़ा था तब इसी को ध्यान में रखते हुये जयराम सरकार ने भी ऐसी नियुक्तियां करने का साहस नहीं किया था। जबकि जो कानूनी स्थिति अब है वही जयराम काल में भी थी। फिर अब तो वित्तीय स्थिति बहुत नाजुक है और स्वयं मुख्यमंत्री सक्खू यह कह चुके हैं। मुख्य संसदीय सचिवों को देर सवेर अपने पदों से जाना ही पड़ेगा। यह कानूनी स्थिति से स्पष्ट है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब कांग्रेस 40 सीटें जीतकर सत्ता में आ गयी थी तब उसे यह नियुक्तियां करने की आवश्यकता क्यों पड़ी। क्या पूरा विधायक दल एकजुट और एकमत होकर मुख्यमंत्री के पक्ष में नहीं था? क्योंकि मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां करना किसी भी राजनीतिक गणित में आवश्यक नहीं था। फिर मुख्य संसदीय सचिवों के बाद जो दूसरी नियुक्तियां कैबिनेट स्तर में हुई है उनको लेकर भी सवाल उठ सकता है कि क्या यह नियुक्तियां संविधान के कानून में संशोधन का उल्लंघन नहीं है। इस समय सरकार जिस तरह की वित्तीय स्थितियों से गुजर रही है और उसके संसाधन बढ़ाने के फैसलों को वांच्छित योगदान नहीं मिल रहा है इससे सरकार के हर फैसले पर आम आदमी पैनी नजर गड़ाये बैठा है। सरकार व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर प्रशासनिक रद्दोबदल से बचने का प्रयास कर रही है। लेकिन इसका परिणाम यह हो रहा है कि कांग्रेस कार्यकर्ताओं तक सत्ता परिवर्तन का एहसास नहीं कर पा रहे हैं। अभी तक कार्यकर्ताओं के नाम पर जितनी नियुक्तियां हुई हैं उनमें अधिकांश जिला शिमला से ही हैं। दूसरे जिलों के कार्यकर्ताओं का नाम इन सूचियों में अभी तक नहीं के बराबर है। कांग्रेस अध्यक्षा प्रतिभा सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष से कार्यकर्ताओं के मान सम्मान न मिलने की बात उठा चुकी है। अभी यही संदेश जा रहा है कि महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हुए अधिकारी कांग्रेस से ज्यादा भाजपा के प्रति झुकाव रख रहे हैं। जो लोग जयराम के सलाहकार होने की भूमिका में थे वही आज सुक्खू के गिर्द भी प्रभावी नजर आ रहे हैं। यह माना जा रहा है कि यदि स्थितियों पर समय रहते नियंत्रण न पाया गया तो कभी भी बड़ा विस्फोट हो सकता है।