टिकट आवंटन पर उभरी बगावत ने बिगाड़ा भाजपा का खेल

Created on Tuesday, 25 October 2022 13:17
Written by Shail Samachar

कई जिलों में खाता तक खोलना हो सकता है कठिन
नड्डा जयराम के गृह जिलों में शान्त नहीं हो पायी बगावत
धूमल परिवार को हाशिये पर धकेलना पड़ सकता है महंगा

शिमला/शैल। टिकट आवंटन के बाद जिस स्तर पर भाजपा में रोष और बगावत के स्वर उभरे हैं उससे यह स्पष्ट हो गया है की सत्ता में वापसी करने और रिवाज बदलने के जितने भी दावे किये जा रहे थे वह सब न केवल हकीकत से कोसों दूर हो गये हैं बल्कि पार्टी को दहाई का आंकड़ा लांघने के भी संकट पर खड़ा कर दिया है। क्योंकि टिकट आवंटन में पार्टी के अब तक के घोषित सारे बड़े सिद्धांतों की आहुति दे दी गयी है। जिस परिवारवाद को कांग्रेस के खिलाफ बड़े हथियार के रूप में अब तक इस्तेमाल किया जा रहा था और उसी के आधार पर उपचुनाव में जिस चेतन बरागटा का टिकट काटा गया था अब उसी को टिकट देने की मजबूरी हो जाना इसका प्रमाण है। जल शक्ति मंत्री महेन्द्र सिंह की जगह उनके बेटे को टिकट देना पड़ा है। ऐसे आधा दर्जन मामले हैं जहां पर परिवारवाद को प्राथमिकता दी गयी है। दो मंत्रियों सुरेश भारद्वाज और राकेश पठानिया के चुनाव क्षेत्र बदले गये। दोनों मंत्रियों के समर्थक इस पर रोष में हैं। सुरेश भारद्वाज के समर्थकों ने तो शिमला से उम्मीदवार बनाये गये संजय सूद के खिलाफ तो राम मंदिर ट्रस्ट से मुख्यमंत्री कोष में पैसा देने के मामले को सवाल बना कर उछाल दिया है। जबकि अब तक यह मामला राम मंदिर ट्रस्ट की चारदीवारी से बाहर नहीं निकला था। लेकिन अब यह चुनावी मुद्दा बना दिया गया है। ऐसे करीब डेढ़ दर्जन चुनाव क्षेत्र हैं जहां अपनों की बगावत व्यक्तिगत स्तर की अदावत तक पहुंच चुकी है। राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा और मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के अपने जिला बिलासपुर और मण्डी में बगावत का जो स्तर सामने आया है उसने दोनों नेताओं की व्यक्तिगत स्वीकार्यता पर ही गंभीर प्रश्न खड़े कर दिये हैं। आज ही जो स्थिति बन चुकी है उसमें प्रदेश के आधे जिलों में तो पार्टी का खाता तक खुलने की संभावनाएं कठिन हो गयी हैं। इस बगावत को शान्त करने के लिये कई जगह आंसुओं का सहारा लेना का प्रयास किया गया है तो कई जगह इन आंसुओं ने आग में घी का काम किया है। 29 तारीख तक यह बगावत कितनी शान्त हो पाती है यह तो तभी पता चलेगा। लेकिन यह तय है कि इस बगावत में अभी तक जो कुछ बाहर आ गया है वही इस घर को जलाकर राख करने के लिये काफी है। क्योंकि कमान से निकले हुये तीर वापस नहीं आते हैं।
जिस स्तर तक यह बगावत पहुंच चुकी है शायद उसका पूर्वानुमान जयराम और नड्डा को या तो नहीं रहा है या फिर एक सोची-समझी योजना के तहत यह किया गया है। क्योंकि हिमाचल में सत्ता में वापसी कोई भी पूर्व मुख्यमंत्री नहीं कर पाया है। मीडिया मंचों से सौ-सौ सर्वश्रेष्ठता के तमगे लेकर भी रिवाज नहीं बदल पाया है। क्योंकि सरकार बनने के बाद सत्ता में वापसी सरकार के कामकाज के आधार पर होती है। मीडिया के प्रमाण पत्रों पर नहीं। जयराम सरकार में तो मुख्यमंत्री का पद दायित्व से अधिक लग्जरी का माध्यम प्रचारित होकर रह गया। जनता को भले ही इसकी जानकारी न रही हो लेकिन पार्टी के बड़े पदाधिकारियों और विधायकों को अवश्य रही है। बल्कि बहुत सारे तो इस जानकारी के आधार पर टिकट पाने और बचाने में सफल हुये हैं। इस सरकार के नाम सबसे अधिक कर्ज लेने का तमगा लगना इसी लग्जरी भाव का परिणाम है। सरकार की पांच वर्ष की कारगुजारी क्या रही है उस पर तो चर्चाएं चुनाव प्रचार के दौरान आयेंगी। लेकिन अभी तक आपस में स्कोर सैटल करने में जो शीत युद्ध चल रहा था वह अब टिकट आवंटन में धूमल परिवार को सफलतापूर्वक हाशिये पर धकेल दिये जाने से एक मोड़ तक पहुंचा दिया गया है। क्योंकि जब यह सामने आया कि 2017 के चुनाव में धूमल और उनके समर्थकों को योजनाबद्ध तरीके से बाहर किया गया था तब यह चर्चा उठी कि धूमल को अपना राजनीतिक मान सम्मान बहाल करने के लिये एक बार चुनाव में आना ही चाहिये। धूमल के भी इस आशय के कुछ बयान आये। राज्यसभा सांसद इन्दु गोस्वामी ने सुजानपुर में इस मन्तव्य को सार्वजनिक भी कर दिया। पार्टी कार्यकर्ताओं में यह संदेश भी चला गया लेकिन टिकट आवंटन में धूमल परिवार को पूरे व्यवहारिक रूप से हाशिये पर धकेल दिये जाने से यह स्पष्ट हो गया है कि पार्टी की हार की चिंता से धूमल को राजनीति से बाहर करना इस समय नेतृत्व की प्राथमिकता बन गयी थी जिसमें नड्डा जयराम सफल रहे हैं।