शिमला/शैल। हिमाचल प्रदेश कांग्रेस के चुनावी टिकटों के आवटन में सिद्धांत रूप से जब यह फैसला लिया था की सभी वर्तमान विधायकों पूर्व में रहे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्षों और वर्तमान में प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के पदाधिकारियों को टिकट दिये जायेंगे तो उससे कांग्रेस की भाजपा और आप पर एक मनोवैज्ञानिक बढ़त बन गयी थी। लेकिन इस बढ़त पर उस समय ग्रहण लग गया जब विप्लव ठाकुर जैसी वरिष्ठ नेता का ब्यान आ गया कि ऐसा कुछ नहीं हुआ है। इसी के साथ शिमला जिला से किसी ने पार्टी द्वारा करवाये गये सर्वेक्षणों की विश्वसनीयता पर यह कहकर सवाल खड़े कर दिये कि सर्वेक्षण का यह काम किसी बड़े नेता ने अपने ही किसी खास रिश्तेदार को एक योजना के तहत दिया था। इन ब्यानों का किसी बड़े नेता ने खण्डन नहीं किया और इसके बाद पार्टी से कुछ लोग भाजपा में चले गये तथा टिकट आवंटन कमेटी में सुखविंदर सुक्खू और प्रतिभा सिंह में उभरे मतभेदों की खबरें तक छप गयी। इसी सब के कारण टिकट आवंटन अभी तक फाईनल नही हो पाया है। बल्कि कांग्रेस में उभरी इस स्थिति को भाजपा और आप पूरी तरह अपने पक्ष में भुना भी रहे हैं। ऐसे में यह आकलन करना स्वभाविक हो जाता है कि कांग्रेस ने ऐसी स्थिति क्यों उभरी है और इसका पार्टी की चुनावी सेहत पर क्या असर पड़ेगां कांग्रेस प्रदेश में 2014 2017 और 2019 में हुये चुनावों में बुरी तरह हार चुकी है। जबकि तब स्व.वीरभद्र और स्व.पंडित सुखराम जैसे बड़े नेता भी मौजूद थे। इसके बाद जब प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बदला तब कांग्रेस ने पहले दो नगर निगम और फिर 3 विधानसभा तथा एक लोकसभा का उप चुनाव जीता। क्या कांग्रेस की यह जीत प्रदेश नेतृत्व के कारण हुई या राष्ट्रीय स्तर पर योजनाबद्ध तरीके से चलती रही राहुल गांधी की सक्रियता से। इस पक्ष पर शायद आज तक खुलकर विचार नहीं हुआ है। जबकि व्यवहारिक सच तो यह रहा है कि 2014 से लेकर मार्च 2020 में कोविड के कारण लगे लॉकडाउन तक केन्द्र सरकार के जो भी आर्थिक फैसले रहे हैं उन पर पूरे देश में पूरी स्पष्टता के साथ किसी भी दूसरे नेता ने बेबाक सवाल नहीं उठाये हैं। इन आर्थिक फैसलों का असर आज महंगाई और बेरोजगारी के रूप में हर घर तक पहुंच चुका है। इन्हीं फैसलों के कारण विकास दर का आकलन लगातार घटता जा रहा है। रूपया डॉलर की मुकाबले बुरी तरह लूढ़क चुका है। केन्द्र से लेकर राज्यों तक कर्ज इतना बढ़ चुका है कि रिजर्व बैंक तक श्रीलंका जैसे हालात हो जाने की आशंका व्यक्त कर चुका है। इस वस्तु स्थिति ने आम आदमी को पूरी तरह आतंकित कर दिया है। सरकार इससे ध्यान हटाने के लिए जांच एजैन्सियों का खुला राजनीतिक उपयोग करने पर आ गयी है। आर्थिक स्थिति पर संघ प्रमुख मोहन भागवत तक चिन्ता व्यक्त कर चुके हैं। यह व्यवहारिक स्थिति कांग्रेस की ताकत बन गयी है और इसी का एहसास शायद प्रदेश कांग्रेस के नेताओं को नहीं है। जबकि चारों उपचुनाव हारने के बाद से लेकर आज तक सरकार के पक्ष में कर्ज बढ़ने के अतिरिक्त कुछ नहीं घटा है। इस व्यवहारिक स्थिति के बावजूद प्रदेश कांग्रेस के नेताओं में बढ़ती खींचतान इसका संकेत मानी जा रही है कि आज यह नेता अपने को येन केन प्रकरेण मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करवाने की कवायद में लग गये हैं। यह सही है कि स्व. वीरभद्र सिंह के बाद नेतृत्व के नाम पर कांग्रेस शून्य की स्थिति से गुजर रही है। स्व. वीरभद्र सिंह के निधन से उपजी सहानुभूति को भुनाने के लिए प्रतिभा सिंह को पार्टी अध्यक्ष बनाया जाना समय की मांग था। लेकिन इस समय भी नेता को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करना घातक होगा। क्योंकि जो भी घोषित होगा उसे पूरे प्रदेश में प्रचार के लिये निकलना पड़ेगा और पीछे से वह धूमल की तरह अपनों के ही षड़यंत्र का शिकार हो जायेगा। ऐसे में यदि मुख्यमंत्री के लिये दावेदारी जताने वालों को अपने-अपने जिले की सारी सीटें जिताने की जिम्मेदारी डाल दी जाये तो इससे पार्टी और नेता दोनों को ही लाभ मिलेगा।