स्वर्ण आयोग की राजनीति में घिरती कांग्रेस और भाजपा

Created on Monday, 29 November 2021 19:17
Written by Shail Samachar

क्रीमी लेयर की सीमा आठ लाख करना क्या सही है
क्या स्वर्ण आयोग के पक्षधर विधानसभा में क्रीमी लेयर पर चर्चा करेंगे

शिमला/शैल। पिछले दिनों प्रदेश की राजधानी शिमला में कुछ स्वर्ण संगठनों ने स्वर्ण आयोग की मांग को लेकर 800 किलोमीटर की हरिद्वार तक पदयात्रा करने के कार्यक्रम की घोषणा की है। इस घोषणा के साथ ही शिमला में एट्रोसिटी एक्ट की शव यात्रा भी निकाली है। इस शव यात्रा का अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के संगठनों ने विरोध किया है। इस शव यात्रा को संविधान का अपमान करार देते हुए प्रदेश उच्च न्यायालय में इस आश्य की याचिका दायर करने की भी बात की है। इस शव यात्रा के विरोध में हर जिले में इन वर्गों का नेतृत्व जिलाधीशों के माध्यम से राज्यपाल को ज्ञापन देने की रणनीति पर आ गया है। जो स्वर्ण संगठन स्वर्ण आयोग गठित किए जाने की मांग कर रहे हैं उनकी मांगों में यह भी शामिल है कि आरक्षण जातिगत आधार पर नहीं वरन आर्थिक आधार पर होना चाहिए। क्रीमी लेयर के मानक का कड़ाई से पालन होना चाहिए। यदि इन मांगों को ध्यान से देखा समझा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि यह मांग राजनीति से प्रेरित और अंतः विरोधी है। क्योंकि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए 22.5% आरक्षण का प्रावधान देश की पहली संसद द्वारा गठित काका कालेलकर आयोग की सिफारिशें आने पर कर दिया गया था। इसके बाद 1977 में जनता पार्टी की सरकार आने पर गठित हुए मंडल आयोग की सिफारिशें स्व.वी.पी. सिंह की सरकार के कार्यकाल में लागू करने से अन्य पिछड़ा वर्ग को भी 27% का आरक्षण लाभ मिल गया था। इसी सरकार में इस आरक्षण के खिलाफ आंदोलन हुआ। वीपी सिंह की सरकार इसकी बलि चढ़ गई और आरक्षण का मुद्दा सर्वोच्च न्यायालय में जा पहुंचा। सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए आरक्षण का आधार आर्थिक कर दिया। आर्थिक संपन्नता के लिए क्रीमी लेयर को मानक बना दिया। उस समय जो क्रीमी लेयर की सीमा एक लाख तय की गई थी वह आज मोदी सरकार में आठ लाख हो गई है। मोदी सरकार ही क्रीमी लेयर की सीमा दो बार बढ़ा चुकी है। यह है आज की व्यवहारिक सच्चाई। हो सकता है स्वर्ण आयोग के गठन की मांग करने वाले सभी लोगों को इस स्थिति का ज्ञान ही ना हो।
जब सर्वोच्च न्यायालय ने पहले ही हर तरह के आरक्षण का आधार आर्थिक करके क्रीमी लेयर का मानक तक बना दिया है तब आरक्षण के विरोध का आधार कहां बनता है। या तो यह मांग की जाये की किसी भी तरह का आरक्षण हो ही नहीं। चाहे कोई अमीर है या गरीब है किसी के लिए भी आरक्षण होना ही नहीं चाहिये। गरीबों के लिए किसी भी तरह की कोई योजना होनी ही नहीं चाहिये। वेलफेयर स्टेट की अवधारणा ही खत्म कर दी जानी चाहिये। क्या आज स्वर्ण आयोग के गठन की मांग करने वाला कोई भी राजनेता या राजनीतिक दल यह कहने का साहस कर सकता है कि सभी तरह का आरक्षण बंद होना चाहिये। वी.पी. सिंह सरकार के समय में जब मंडल बनाम कमंडल हुआ था तो उस समय किस विचारधारा के लोगों ने आरक्षण का विरोध किया था। अब जब से मोदी सरकार आयी है तब से कई राज्यों में आरक्षण को लेकर आंदोलन हुये हैं। हर आंदोलन में यही मांग उठी है कि या तो हमें भी आरक्षण दो या सबका समाप्त करो। संघ प्रमुख मोहन भागवत तक आरक्षण पर बयान दे चुके हैं। लेकिन इसी सबके साथ जब भी इस दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण को लेकर कोई व्यवस्था दी तो मोदी सरकार ने संसद में शीर्ष अदालत के फैसले को पलट दिया है।
इस दौरान हिमाचल ही एक ऐसा राज्य रहा है आरक्षण को लेकर कोई आंदोलन नही उठा है। अब जयराम सरकार के अंतिम वर्ष में आरक्षण पर स्वर्ण आयोग की मांग के माध्यम से एक मुद्दा खड़ा किया जा रहा है। इसमें भी महत्वपूर्ण यह है कि यह मुद्दा भी मुख्यमंत्री के उस बयान का परिणाम है जिसमें उन्होंने कहा की स्वर्ण जातियों के हितों की रक्षा के लिए स्वर्ण आयोग का गठन किया जायेगा। मुख्यमंत्री के इस बयान में कांग्रेस के भी विक्रमादित्य सिंह जैसे कई विधायक पार्टी बन गये हैं। सभी स्वर्ण आयोग गठित करने के पक्षधर बन गये हैं। क्या यह लोग विधानसभा के इस सत्र में इस पर चर्चा करेंगे की क्रीमी लेयर में आठ लाख का मानक कैसे तय हुआ है। आठ लाख की वार्षिक आय का अर्थ है करीब 67000 प्रति माह। यदि 67 हजार प्रतिमाह की आय वाला व्यक्ति भी आरक्षण का हकदार है तो सरकार को यह जानकारी सार्वजनिक करनी चाहिए कि इस मानक में प्रदेश के कितने लोग आ जाते हैं। स्वर्ण आयोग की मांग करने वालों को भी इस मानक पर अपना पक्ष स्पष्ट करना चाहिये। जब आरक्षण आर्थिक आधार पर मांगा जा रहा है तो फिर और मुद्दा ही क्या बचता है।