टर्म पूरी करने के लिये उपचुनाव अनिवार्य
उपचुनावों की एक भी हार कुर्सी के लिये होगी घातक
उपचुनावों से बचने के लिये फरवरी में आम चुनाव करवाना होगी मजबूरी
शिमला/शैल। कई प्रदेशों में उपचुनाव टालने, गुजरात में भाजपा द्वारा अचानक मुख्यमंत्री बदलने और नये मुख्यमंत्री द्वारा पुराने मन्त्री मण्डल के एक भी मन्त्री को अपनी टीम में जगह न देने तथा अब पंजाब में कांग्रेस द्वारा दलित को मुख्यमन्त्री बनाये जाना ऐसे राजनितिक घटनाक्रम हैं जिनसे केन्द्र से लेकर हर राज्य की राजनीति प्रभावित हुई है। उप चुनाव छः माह के भीतर होने अनिवार्य है यदि स्थान खाली होने के समय आम चुनाव के लिये कुल समय ही एक वर्ष से कम बचा हो तो ऐसी स्थिति में चुनाव आयोग केन्द्र सरकार से चर्चाकर के ऐसे चुनावों को छः माह से अधिक समय के लिये टाल सकता है। लेकिन वर्तमान में लोकसभा के किसी भी रिक्त स्थान के लिये उपचुनाव टालना असंभव है। यही स्थिति उन राज्यों की है जिनमें 2022 के दिसम्बर में आम चुनाव होने है। इसलिये जब ऐसे राज्यों में उपचुनाव टाले गये हैं तो स्वभाविक है कि इन राज्यों के आम चुनाव 2022 के शुरू में ही उतर प्रदेश और पंजाब के साथ ही फरवरी-मार्च में ही करवाकर संवैधानिक संकट से बचा जा सकता है। अन्यथा इन राज्यों के उपचुनाव अभी अक्तूबर में ही हो जाने चाहिये थे जो नही हुए। इसलिये यह तय है कि हिमाचल और गुजरात में समय पूर्व ही आम चुनाव करवा लिये जायेंगे। अभी चार अक्तूबर को चुनाव आयोग फिर से बैठक करने जा रहा है। इस बैठक में उपचुनावों पर फिर से फैसला लिये जाने की चर्चा है। माना जा रहा है कि दिल्ली दरबार ने प्रदेश सरकार के उपचुनाव टालने के फैसलें पर खासी नाराजगी जाहिर की है। अब यदि उपचुनाव करवाने का फैसला लिया जाता है तो प्रशासन को कहना पडेगा कि उसका पिछला फैसला सही नहीं था। यह कहना पडेगा कि कोरोना की स्थिति में सुधार हुआ है। जबकि मंडी में ही इसका आंकड़ा बड़ गया है। अध्यापक और बच्चे बड़ी संख्या में संक्रमित पाये गये हैं। ऐसे में यह उपचुनाव गले की फांस बन गये हैं। एक भी उपचुनाव में हार कुर्सी के लिए खतरा बन सकती है।
गुजरात में मुख्यमन्त्री का बदलना और नयी टीम में पुराने एक भी मन्त्री को नही लिया जाना भाजपा का आज की राजनीति का स्पष्ट संकेत है। क्योंकि गुजरात वह प्रदेश है जिससे प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और गृह मन्त्री अमित शाह ताल्लुक रखते हैं और उन्ही के नाम पर वहां वोट पड़ते हैं। ऐसे में गुजरात में हुए इस परिवर्तन का भाजपा शासित अन्य राज्यों के मुख्यमन्त्रीयों को भी सीधा संकेत है कि यदि उनकी चुनावी क्षमताओं पर दिल्ली दरबार को जरा सा भी शक हुआ तो वहां भी नेतृत्व परिवर्तन किया जा सकता है। इसी कारण से हिमाचल में भी नेतृत्व परिवर्तन को लेकर चर्चाएं उठनी शुरू हो गयी हैं। हिमाचल में इस सरकार द्वारा लिया गया कर्ज चुनावों में एक बड़ा मुद्दा बनेगा यह तय है। क्योंकि जब मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर ने मार्च 2018 को अपना पहला बजट भाषण सदन में रखा था तो उसमें पूर्व की वीरभद्र सरकार पर अपने कार्यकाल में अठारह हजार करोड़ से अधिक का कर्ज लेकर प्रदेश को कर्ज के चक्रव्यूह में घकेलने का आरोप लगाया था। दिसम्बर 2017 में सरकार का कर्ज 46000 करोड हो जाने को बहुत बड़ा मुद्दा बताया था। परन्तु आज यही कर्ज अब ही 70,000 करोड़ तक पहुंच चुका है। जबकि अभी एक बजट इस कार्यकाल का आना बाकि है। इसलिए आने वाले समय में यह सवाल पूछा जायेगा कि इस कर्ज का निवेश कहां हुआ। आज बेरोजगारी से तंग आकर प्रशिक्षित ए एन एम संघ हड़ताल पर है। करूणामूलक आघार पर नौकरी मांगने वाले 70 दिन से हड़ताल पर है। पूर्व सांसद और मंत्री राजन सुशांत की पार्टी पेंशन योजनाओें को लेकर लंबे समय से हड़ताल पर है। मुख्यमंत्री वही दो बार जा आये हैं। परंतु सुशांत और उनके हड़ताल पर बैठे उनके कार्यकताओं की बात सुनने तक उनके पास नहीं गये हैं। डॉ. सुशांत मुख्यमंत्री पर असंवेदनशील और अनुभवहीन होने का आरोप लगा चुके हैं। चुनावों की पूर्व संध्या पर किसी भी सरकार के लिए इस तरह आंदोलन कोई शुभ संकेत नहीं माने जा सकते।
ऐसे परिदृश्य में पडोसी राज्य पंजाब में दलित मुख्यमन्त्री का आ जाना भी राजनीतिक परिदृश्य को प्रभावित करेगा। क्योंकि 2014 से लेकर आज 2012 तक हुई भीड़ हिंसा की घटनाओं में सबसे ज्यादा प्रभावित वर्ग दलित और मुस्लिम समुदाय ही रहा है। हिमाचल के हर जिले मे दलितों के साथ ज्यादतीयां होने के किस्से सामने आये हैं। कुल्लु में दलित दंपति के साथ हुई मारपीट पर कोई कारवाई न होने को कांग्रेस मुद्दा बना चुकी है। दलित मुद्दों की आवाज उठाने वाले दलित एक्टिविस्ट कर्मचन्द भाटिया पर देशद्रोह का मुकद्दमा बना दिया जाना ऐसे सवाल होंगे जो आगे पूछे ही जायेंगे। हिमाचल में दलितों की आबादी 28% है। यहां के दलित मन्त्री को मुख्यमन्त्री के गृह जिला में ही मन्दिर में प्रवेश नही करने दिया गया था। क्या दलित समाज अपने साथ हुई ज्यादतीयों पर सवाल नही उठायेगा? क्योंकि अभी तक दलित उत्पीड़न के एक भी मामले में सिरमौर से लेकर चम्बा तक किसी दोषी को सजा नही मिली है क्योंकि सरकार इन मामलों पर कभी गंभीर नही रही है।
आज भाजपा शासित किसी भी राज्य में न तो दलित और न ही कोई महिला मुख्यमन्त्री है। हिमाचल में महिलाएं 52% है यह प्रधानमन्त्री ने ही पिछले दिनां एक बातचीत में स्वीकारा है। दलित 28% हैं और आज इस 80% का प्रदेश नेतृत्व कितना प्रभावी है यह सभी के सामने है। कांग्रेस ने पंजाब में दलित मुख्यमन्त्री बनाकर पूरे देश को संदेश दिया हैं। कांग्रेस अध्यक्ष स्वंय महिला हैं। ऐसे में राजनीतिक हल्कों में यह चर्चाएं बल पकड़ती जा रही है कि क्या भाजपा कांग्रेस के दलित कार्ड का जबाव राज्यों में महिला मुख्यमन्त्री लाकर देगी और इसकी शुरूआत हिमाचल से ही हो सकती है। हिमाचल में 1977 के बाद कभी कोई सरकार 1985 को छोड़कर पुनः सत्ता में वापसी नही कर पाई है। लेकिन भाजपा ने 2014 और फिर 2019 में प्रदेश की सारी लोकसभा सीटों पर कब्जा करके एक अलग इतिहास रचा है। शायद इसी का परिणाम है कि आज भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा हिमाचल से ताल्लुक रखने वाला है। इस समय मूख्यमन्त्री जयराम ठाकुर को सबसे ज्यादा संरक्षण नड्डा का ही हासिल है। यह प्रदेश का हर आदमी जानता है। इसलिये यदि इस बार जयराम सरकार सत्ता में वापसी नही कर पाती है तो इसके लिये सबसे ज्यादा दोष नड्डा के सिर पर ही आयेगा। इस समय जिस तरह की परिस्थितियां प्रदेश में घटती जा रही हैं उनके परिदृश्य में आने वाला समय बहुत कुछ अप्रत्याशित सामने ला सकता है ऐसा माना जा रहा है। आने वाले दिनों में भ्रष्टाचार के मामलों पर पड़े हुए परदे जब उठने लगेंगे तो उससे बहुत कुछ प्रभावित होगा।