शिमला/शैल। हिमाचल भाजपा के वरिष्ठतम पूर्व मुख्यमन्त्री एवम् पूर्व केन्द्रिय मन्त्री शान्ता कुमार क्या अपनी ही पार्टी और उसकी सरकार से आहत महसूस कर रहे हैं? यह सवाल प्रदेश के राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कों में इन दिनों चर्चा में चल रहा है। क्योंकि बीते एक सप्ताह में दो बार इस आशय के ब्यान उनके सामने आये हैं। विवेकानन्द ट्रस्ट उनका ड्रीम प्रौजैक्ट रहा है जिसे इस मुकाम तक पहुंचाने के लिये उन्होनें बहुत परिश्रम किया है और इस परिश्रम की अपनी ही एक अलग दास्तान रही है। क्योंकि एक समय इसी ट्रस्ट के ट्रस्टी रहे वरिष्ठ आईएएस अधिकारी एस.के.आलोक तक ने बगावत कर दी थी। प्रदेश उच्च न्यायालय में दायर हुई याचिका भी इसी दास्तान का हिस्सा रहा है। कांगड़ा के ही दो बड़े राजनेता विजय मनकोटिया और जी .एस. बाली भी इस ट्रस्ट को लेकर शान्ता कुमार के साथ सीधे टकराव में रह चुके हैं। प्रदेश विधानसभा में भी इस ट्रस्ट को लेकर सवाल उठ चुके हैं। इन सवालों के जवाब में भी बहुत कुछ रिकार्ड पर आ चुका है। इसी ट्रस्ट के परिप्रेक्ष में डा. राजन सुशान्त ने शान्ता कुमार की आय का 1977 में विधानसभा में दिया गया ब्यौरा भी सार्वजनिक करते हुए कई सवाल उछाले थे। स्वभाविक है कि जिस प्रोजैक्ट के लिये इतना सब कुछ सहा गया हो तो जब उस विषय पर प्रदेश उच्च न्यायालय का इस तरह का फैसला आये तब उस पर दर्द और खुशी दोनों एक साथ छलकेंगे ही। ट्रस्ट के मामलें में जो शान्ता कुमार ने अपनी ही पार्टी के लोगों पर अपरोक्ष में उन्हें परेशान करने का आरोप लगाया है उसका असर पार्टी के भीतर दूर तक जायेगा। क्योंकि शान्ता कुमार का प्रदेश की जनता में और राष्ट्रीय स्तर पर संगठन में अपना एक अलग स्थान है। इस नाते शान्ता कुमार का यह अपरोक्ष आरोप वर्तमान सरकार और संगठन के लिये एक बहुत बड़ा संकेत बन जाता है। क्योंकि उच्च न्यायालय में जयराम सरकार के कार्यकाल में भी प्रशासन की इस याचिका को फैसले तक पहुचानें में महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
विवेकानन्द ट्रस्ट के बाद गुड़िया मामले ने उन्हें और आहत किया है। इस मामले में प्रदेश पुलिस से लेकर सीबीआई की जांच तक से शान्ता ने नाराज़गी व्यक्त करते हुए मुख्यमन्त्री को सुझाव दिया है कि वह इसकी नये सिरे से जांच करवाने के लिये एसआईटी का गठन करें। एसआईटी में किस स्तर के कौन लोग हों यह तक सुझाव दिया है। इस मामले में मुख्यमन्त्री ऐसा कर पाते हैं कानून इसकी ईजा़जत देता है या नही और प्रदेश उच्च न्यायालय ऐसा करने की अनुमति देता है या नहीं इसका पता आने वाले समय में ही लगेगा। क्योंकि गुडिया की मां इसमें इन्साफ मांगने के लिये सर्वोच्च न्यायालय गयी थी और सर्वोच्च न्यायालय ने उसे उच्च न्यायालय में जाने के निर्देश दिये थे। इस कारण से यह मामला अब उच्च न्यायालय में है। लेकिन शान्ता कुमार के पत्र से जयराम सरकार निश्चित रूप से कठघरे में आ खड़ी होती है क्योंकि उसे सत्ता मेें तीसरा वर्ष पूरा होने जा रहा है। इन तीन वर्षों में न तो गुडिया और न ही होशियार सिंह मामले में पीड़ित पक्षों को न्याय मिल पाया है। बल्कि आज प्रदेश में हर रोज़ एक बलात्कार होने का रिकार्ड खड़ा हो गया है। इस परिदृश्य में शान्ता का जयराम को पत्र लिखना निश्चित रूप से सरकार की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल उठाता है।
लेकिन शान्ता के इस पा के साथ ही पार्टी के उन लोगों को भी बल मिल जाता है जो किसी न किसी कारण सरकार और संगठन से नारा़ज चल रहे हैं। ऐसे लोगों में सबसे पहले डा. राजीव बिन्दल और नरेन्द्र बरागटा के नाम आते हैं। बिन्दल को उन आरोपों पर पद छोड़ना पड़ा या उनसे छुड़वाया गया जिनके साथ उनका कोई सीधा संबंध नही था। फिर विजिलैन्स जांच में भी उनको क्लीन चिट मिल गया लेकिन सम्मान बहाल नहीं हुआ। नरेन्द्र बरागटा मुख्यमन्त्री और पार्टी प्रधान दोनों से यह शिकायत कर चुके हैं कि उनके चुनाव क्षेत्र में एक दूसरे नेता दखल दे रहे हैं। चर्चा है कि इस तरह की शिकायतें कई और विधायकों से भी आनी शुरू हो गयी हैं। कांगड़ा में रमेश धवाला और संगठन मन्त्री पवन राणा का विवाद अभी तक अपनी जगह कायम है। माना जा रहा है कि यह विवाद पवन राणा के प्रभाव को कम करने की रणनीति का परिणाम है। सरवीण चौधरी और इन्दु गोस्वामी मामले भी कांगड़ा की राजनीति को प्रभावित करेगें ही यह तय है। अब अनिल शर्मा ने भी मोर्चा खोल दिया है। पूर्व विधायक गोविन्द राम शर्मा के समर्थक भी अपनी नाराज़गी मुखर कर चुके हैं। प्रशासन किस तर्ज पर चल रहा है इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सरकार नगर निगम शिमला के आयुक्त का पद ही एक सप्ताह से नहीं भर पायी है। प्रशासन पर इससे बड़ी व्यवहारिक टिप्पणी और कोई नहीं हो सकती है। क्योंकि यह पता ही नहीं चल रहा है कि सरकार में आदेश किसका चल रहा है। इसको लेकर कई तरह की चर्चाएं चल निकली हैं क्योंकि एच ए एस से आई ए एस में आये अधिकारियों को नियुक्तियां देने में ही बहुत वक्त लगा दिया गया और अब आयुक्त का पद भरना ही कठिन हो गया है।