शिमला/शैल। भाजपा ने इस बार के विधानसभा चुनावों के दौरान तब सत्तारूढ़ वीरभद्र सरकार के खिलाफ ‘‘हिसाब मांगे हिमाचल’’ अभियान छेड़कर न केवल सरकार में फैलेे भ्रष्टाचार को ही केन्द्रिय बहस में लाकर खड़ा कर दिया था बल्कि सरकार को भ्रष्टाचार का पर्याय चित्रित कर दिया था। क्योंकि इस हिसाब मांगने के अभियान से पहले भी भाजपा सरकार के खिलाफ आरोप पत्र जारी करती रही है। एक आरोप पत्र तो वाकायदा महामहिम राष्ट्रपति को सौंपा गया था और इसकी जांच सीबीआई द्वारा करवाने की मांग की गयी थी। प्रदेश विधानसभा के सत्र में भी यह मांग दोहरायी गयी थी। इससे जहां उस समय भाजपा भ्रष्टाचार के खिलाफ
अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने में सफल रही वहीं पर आम आदमी का विश्वास जीतने में भी कामयाब रही। इसी प्रदर्शन और विश्वास की सीढ़ी पर चढ़कर सत्ता के सिंहासन तक पहुंचने में सफल भी रही।
लेकिन अब जब भाजपा की दो तिहाई बहुमत के साथ सरकार बन गयी है। तब भ्रष्टचार के मुद्दे पर कथनी और करनी में अन्तर दिखने लगा है क्योंकि सरकार ने अपने ही संगठन द्वारा सौंपे आरोप पत्र पर संवद्ध विभागों से उनकी राय मांगी है। स्वभाविक है कि कोई भी स्वयं क्यों स्वीकार करेगा कि उसके यहां भ्रष्टाचार हुआ है। भ्रष्टाचार के आरोपों पर तो विजिलैन्स भी गुप्त तरीके से प्रारम्भिक जांच करके आरोप से जुड़े कुछ साक्ष्य जुुटाकर फिर मामले में आगे बढ़ते हुए एफआईआर दर्ज की जाती है। यदि आरोप के साथ उससे जुड़े दस्तावेजी प्रमाण साथ सलंग्न हो तो सीधे एफआईआर दर्ज हो जाती है। अब जब सरकार ने इन आरोपों पर संबंधित विभागों से रिपोर्ट लेने के बाद इन पर अगली कारवाई तय करने का फैसला लिया है तो इससे यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि सरकार को अपने ही संगठन द्वारा लगाये गये आरोपों की प्रमाणिकता पर भरोसा नही है। इससे यह भी सामने आता है कि राजनीतिक दल केवल जनता का ध्यान भटकाने के लिये ही एक दूसरे पर आरोप लगाते हैं इन पर ईमानदारी से कारवाई करने की इनकी कोई मंशा नहीं होती है। 2007 से 2012 के शासनकाल में भी जब भाजपा सत्ता पर काविज थी तब भी भाजपा सरकार ने अपने ही आरोप पत्रों पर कोई कारवाई नहीं की थी।
इस बार अभी सरकार को सत्ता में आये केवल तीन माह का ही समय हुआ है इस नाते यह कहा जा सकता है कि इतनी जल्दी नतीजे पर नही पहुंचा जा सकता। लेकिन इसी तीन माह के समय में सरकार ने जो कुछ बडे़ फैसले लिये है। उनसे अल्प समय का तर्क स्वयं ही हल्का पड़ जाता है। सरकार ने कुछ अधिकारियों के खिलाफ मुकद्दमा चलाने की पहल दी गयी अनुमति को वापिस लेने का फैसला लिया है। जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने नन्दन पासवान बनाम स्टेट आॅफ बिहार में 20 दिसम्बर 1986 और बैराम मुरलीधर बनाम स्टेट आॅफ आंध्र प्रदेश में 31 जुलाई 2014 तथा एम सीमोनज़ बनाम स्टेट आॅफ आंध्र में 5 फरवरी 2015 को स्पष्ट कहा है कि एक बार दी गयी अनुमति पर न तो पुनः विचार किया जा सकता हैं और न ही उसे वापिस लिया जा सकता है। उच्चस्थ सुत्रों के मुताबिक प्रदेश के विधि विभाग ने भी इस संबध में सरकार को यही राय दी थी। लेकिन सरकार ने राय पसन्द न आने के बाद शायद सचिव विधि को ही बदल दिया। यही नहीं अब जब सरकार सचेतको को मन्त्री का दर्जा देने का विधेयक लेकर आयी तब भी इस पर विधि विभाग की राय नकारात्मक रही है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जब सरकार विधि विभाग की राय को भी अनदेखा करके फैसले ले रही है तो सीधा है कि एक ऐजैण्डे के तहत सरकार में सबकुछ हो रहा है। इन मामलों पर अदालत क्या रूख लेगी और सरकारी वकील अदालत में क्या प्रार्थना रखते हैं यह तो आने वाले समय में ही खुलासा हो पायेगा। लेकिन इसी के साथ यह सवाल भी खड़ा होगा कि यदि सरकार सही में इन मामलों को राजनीतिक द्वेष से बनाये गये मामले मानती है तो ऐसे मामले बनाने वालों के खिलाफ सरकार को कारवाई भी सुनिश्चित करनी पड़ेगी। क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट कहा है कि यदि सरकार का अदालत में कोई मामला फेल होता है तो उसके लिये किसी की जिम्मेदारी तय करके उसके खिलाफ कारवाई की जानी चाहिये। क्योंकि जो मामले वापिस लिये जाने के प्रयास से किये जा रहे हैं उनके चालानों में इतने गंभीर आरोप हैं कि इसमें या तो आरोपीयों या फिर मामलें बनाने वालों के खिलाफ कारवाई होना तय है। इन मामलों का हल्के से लेना सरकार के लिये आसान नही होगा।
इसी परिदृश्य में जिस बीवरेज कारपोरेशन मामले पर कारवाई का फैसला मन्त्रीमण्डल की पहली ही बैठक में लिया गया था वह अब तक विजिलैन्स में नही पहुंचा है जबकि इस मामले में भाजपा करोड़ों के घोटाले का आरोप लगा चुकी है। इस आरोप पर तब तक जांच संभव नहीं है जब तक कि इस पर विजिलैंस में विधिवत रूप से मामला दर्ज नही हो जाता है। लेकिन चर्चा है कि अधिकारी इसमें विजिलैंस में जाने से पहले प्रशासनिक स्तर पर जांच करने का मन बनाये हुए है।
क्योंकि इस प्रकरण की जांच बीवरेज कारपोरेशन के एम. डी. और चैयरमैन से ही शुरू होगी और यह दोनो ही पद सरकार के अधिकारियों के पास ही थे। आज यह अधिकारी जयराम सरकार में महत्वपूर्ण भूमिकाओं में बैठे हुए हैं इसलिये यह आशंका उभर रही है कि इन अधिकारियों को बचाने के लिये ही प्रशासनिक जांच प्रस्तावित की जा रही है। यही स्थिति धर्मशाला के भूमिगत कूड़ादानों की जांच के संद्धर्भ में भी हो रही है। यही नहीं कसौली के होटलों में हुये अवैध निर्माणों के लिये एनजीटी ने टीसीपी और प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के जिन अधिकारियों/कर्मचारियों को व्यक्तिगत रूप से चिन्हित करते हुए उनके खिलाफ कारवाई की जाने की अनुशंसा की थी उस पर भी आज तक मुख्यसचिव कोई कारवाई नहीं कर पाये हैं।
यह सारे मामले कभी -न-कभी भाजपा के आरोप पत्रों के मुद्दे रह चुके हैं। भ्रष्टाचार के यह मामले प्रदेश के आम आदमी की जानकारी में हैं इसीलिये आम आदमी को भाजपा की इस नई सरकार से यह उम्मीद थी कि शायद वह किसी भी तरह के राजनीतिक पूर्वाग्रहों से ग्रसित नहीं है और इन मामलों में गंभीरता से कारवाई अमल में ला पायेगी लेकिन अब जब अपने ही आरोप पत्र पर सम्बधित विभागों से राय लेने की बात की जा रही है तब आम आदमी का सरकार पर से विश्वास उठना स्वभाविक है। माना जा रहा है कि कालान्तर में सरकार को इसकी भारी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ेगी।