प्रदेश के सियासी समीकरण समय पूर्व चुनावों का स्पष्ट संकेत

Created on Monday, 25 July 2016 13:39
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। जब से केन्द्रिय स्वास्थ्य मन्त्री जेे.पी. नड्डा ने प्रदेश की राजनीति में वापसी के संकेत दिये हैं तब से न केवल भाजपा के भीतरी समीकरणों में ही बदलाव आया है बल्कि सत्तारूढ़ कांग्रेस सहित पूरे प्रदेश के सियासी समीकरण बदले हैं। भाजपा में नड्डा को प्रदेश के अगले मुख्यमन्त्री के एक प्रबल दावेदार के रूप में एक वर्ग से देखना शुरू कर दिया है। इस वर्ग का तर्क है कि अगले चुनाव तक धूमल 75 वर्ष की आयु सीमा के दायरे में आ जायेंगे और भाजपा ने जब केन्द्र में 75 के पार के नेताओं को केन्द्रिय मन्त्रीमण्डल से बाहर रखा है तो फिर प्रदेशों में भी यह नियम लागू करना ही पडे़गा। कांगड़ा के सांसद पूर्व मुख्यमन्त्री प्रेम कुमार इसी गणित के चलते केन्द्रिय टीम से बाहर है। केन्द्र की इस स्थिति को देखते हुए प्रदेश के नेताओं का इससे प्रभावित होना भी स्वाभाविक है। इसी प्रभाव का परिणाम था कि जब पिछले दिनो नड्डा पीटरहाॅफ में आये थे तो धूमल के सर्मथकों का एक बड़ा वर्ग उनके गिर्द घेरा डाले देखा गया था। चर्चा तो यहां तब है कि कुछ लोगों ने धूमल और अनुराग के खिलाफ चल रहे एचपीसीए और अन्य मामलों की विस्तृत जानकारी भी पार्टी अध्यक्ष अमितशाह तक पहुंचा दी है। सूत्रोें की माने तो करीब एक दर्जन विधायकों ने भी ऐसे पत्र पर हस्ताक्षर किये है। आय से अधिक संपति की शिकायत का भी पूरा जिक्र इसमें किया गया है। तर्क रखा गया है कि चुनावोेें के दौरान यह मामले चर्चा में आयेगें और इनका पार्टी की सियासी सेहत पर प्रतिकूल असर पडे़गा। धूमल खेमा भी इस पूरे खेल पर नजर रखे हुए है। माना जा रहा है कि इस रणनीति के सूत्र धारों में शान्ता और उनके समर्थक भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
भाजपा के इन समीकरणों का प्रभाव हिलोपा और प्रदेश की आम आदमी पार्टी ईकाईयों पर भी पडा है। हिलोपा के भाजपा में संभावित विलय की जो चर्चाएं 2013 में ही शुरू हो गयी थी वह अब फलीभूत होती नजर आ रही हैं। हिलोपा का सारा कुनवा नाराज भाजपाईयों का ही था। सब जानते है कि नाराज लोग धूमल की कार्यशैली के विरोधी थे और समय-समय पर अपनी नाराजगी पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं तक पहंचाते रहे हैं बल्कि भाजपा से अलग होने से पहले धूमल के खिलाफ एक विस्तृत प्रतिवेदन तत्कालीन अध्यक्ष नितिन गडकरी को सौंपा था। जिसकी जांच उस समय नड्डा को ही सौंपी गयी थी। हिलोपा के कई लोग विलय का एक समय तक विरोध करते रहे है। लेकिन अब बदले समीकरणों में सबने एकमत से यह फैसला महेश्वर पर छोड़ दिया हैै। हिलोपा का विधिवत विलय कभी भी सुनने को मिल सकता है। क्योंकि इस समय यह विलय हिलोपा और भाजपा दोनों की राजनीतिक आवश्यकता बन चुका है। भाजपा का राष्ट्रीय ग्राफ अब आशानुरूप आगे नहीं बढ़ रहा जिसके हर आये दिन नए नए कारण बनते जा रहें हंै। हिलोपा विलय की चर्चा के बाद विकल्प बनने की सोच भी नही सकती है।
स्ंायोगवश इसी सबके बीच प्रदेश की आम आदमी पार्टी ईकाई भी भंग हो गयी। लोकसभा चुनावोें में चारो सीटों पर चुनाव लड़कर प्रदेश में कदम रखने वाली पार्टी तब से लेकर अब तक अपनी उपस्थिति तक ढंग से दर्ज नही करवा पायी। परिणाम स्वरूप केन्द्रिय नेतृत्व को कड़ा कदम उठाते हुए इसे भंग करना पडा। नयी ईकाई के गठन की प्रक्रिया तो चल रही है लेकिन कब तक यह पूरी होकर प्रभावी ढंग से काम करना शुरू कर पायेगी यह कहना कठिन है फिलाहल आप के न होने का भी लाभ भाजपा और कांग्रेस को ही मिलेगा यह स्वाभाविेक है।
कांग्रेस इस समय वीरभद्र मामले में ऐसी उलझ गयी है कि उसे कोई भी स्पष्ट फैसला लेने का साहस नही हो रहा है। सरकार इस समय हर रोज अपनी कथित उपलब्धियों के वखान नये-नये विज्ञापन जारी कर रही है। विज्ञापनों की रफ्रतार जितनी तेज है उतनी ही तेजी वीरभद्र के दौरे में रही है। वीरभद्र ने भी अपने दौरों में जनता को दिल खोल कर घोषणाओं का तोहफा दिया है। घोषणाओं और विज्ञापनों को एक साथ मिलाकर देखाजाये तो पूरी स्थिति चुनाव प्रचार अभियान का संकेत देती है। क्योंकि घोषणाओं और विज्ञापनों से जनता में जो जन अपेक्षाएं उभार दी गयी हैं उन्हे दिसम्बर 2017 तक यथा स्थिति बनायेे रखना किसी के लिये भी संभव नहीं है। फिर वीरभद्र सीबीआई और ईडी के जाल में ऐसे उलझे हुए हैं कि हर समय किसी भी अशुभ की आंशका के साये में जी रहे हैं। यह आंशका कभी भी सही सिद्ध हो सकती है कि स्थिति बनी हुई है। ऐसे में कांग्रेस के लिये नेतृत्व परिवर्तन या विधानसभा भंग करवा कर नये चुनावों में जाने का फेैसला लेने की बाध्यता बढ़ती जा रही है। यदि विधानसभा भंग करवा कर नये चुनाव करवाने का फैसला लिया जाता है तो भाजपा भी उसका अनुमोदन करने को तैयार बैठी है कांग्रेस और भाजपा दोनों ही यह चाहेगें कि अगले वर्ष पंजाब के चुनाव होने से पहले ही हिमाचल के चुनाव करवा लिये जायंे। क्योंकि इस समय प्रदेश में तीसरा राजनीतिक विकल्प है ही नही। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि इस समस कांग्रेस और भाजपा इस संभावित विकल्प को रोकने के लिये अपरोक्ष में आपस में तालमेल भी कर सकते हैं।