शिमला/शैल। प्रदेश कांग्रेस कमेटी की कार्यकारिणी को भंग हुये अब आठ माह का समय होने जा रहा है। लेकिन अभी तक कार्यकारिणी का गठन नहीं हो पाया है। जबकि इस दौरान हाईकमान की ओर से पर्यवेक्षकों की एक बड़ी टीम भी प्रदेश में भेजी गई थी जिसने हर चुनाव क्षेत्र में जाकर पार्टी के सक्रिय सदस्यों से फीडबैक लेकर उसकी रिपोर्ट भेजनी थी और उस रिपोर्ट के आधार पर आगे कार्यकारिणी का गठन होना था। पर्यवेक्षकों को भी आये हुए एक अरसा हो गया है। इसी दौरान यह भी चर्चाएं उठी कि प्रदेश अध्यक्ष भी बदल दिया जाएगा क्योंकि उसका कार्यकाल भी निकट भविष्य में पूरा होने जा रहा है। फिर यह चर्चाएं भी उठी कि मंत्रिमण्डल में भी फेरबदल होने जा रहा है। कुछ मंत्रियों को हटाकर उनके स्थान पर नये मंत्री बनाए जाएंगे। लेकिन यह सारी चर्चाएं हकीकत में नहीं बदल पायी है। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बने हुये अढ़ाई वर्ष होने जा रहे हैं। इस दौरान लोकसभा के चुनाव हुए परन्तु सरकार होते हुए भी कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पायी। सरकार बनने के दो माह बाद ही यह चर्चाएं उठ गयी थी कि संगठन और सरकार में उचित तालमेल नहीं है। इस तालमेल के अभाव को लेकर हाईकमान को भी सूचित किया गया था। खुले पत्र लिखे गये थे। लेकिन जब इस सबका कोई असर नहीं हुआ तब राज्यसभा चुनाव के दौरान पार्टी के छः विधायकों ने बगावत करके इस चुनाव में भाजपा को जिता दिया। इस बगावत पर कारवाई करते हुए इन छः विधायकों को पार्टी से निकालकर उनके स्थान पर उपचुनावों का मार्ग प्रशस्त कर दिया। उपचुनाव में कांग्रेस फिर से अपना पुराना चालीस वाला आंकड़ा पाने में तो सफल हो गयी लेकिन इस सफलता ने कांग्रेस सरकार के नाम पर भाजपा के साथ अघोषित तालमेल की चर्चा जोड़ दी। आज तक भाजपा के साथ सुक्खू सरकार के तालमेल के रिश्तों की चर्चा राजनीतिक और प्रशासनिक हल्को में चर्चा का विषय बना हुआ है।
यह एक स्वभाविक राजनीतिक प्रतिफल है कि इस वस्तुस्थिति में प्रदेश में संगठन कैसे ताकतवर बन सकता है जब नेतृत्व के अपने रिश्ते भाजपा के साथ इस कदर प्रगाढ़ होंगे तो तय है कि ऐसे रिश्तों के चलते संगठन व्यवहारिक रूप से गौण हो जायेगा। इस समय प्रदेश में सुक्खू सरकार इसी व्यवहारिक पक्ष के साथ एक साथ अपना समय निकल रही है। क्योंकि सरकार जिस तरह की वित्तीय स्थिति से गुजर रही है उसमें अपनों से ज्यादा बाहर वालों का साथ सहयोग चाहिये। ऐसे में जब भी प्रदेश कार्यकारिणी के गठन की चर्चा उठेगी तब यह बड़ा सवाल सबके सामने होगा कि कांग्रेस का कार्यकर्ता जनता के बीच सरकार के कौन से फैसलों की वकालत कर पायेगा? जिस सरकार को एक उपचुनाव जीतने के लिये सरकारी आदारों से 78 लाख रुपया बंटवाना पड़े वहां कार्यकर्ता सरकार का क्या पक्ष लेकर आम आदमी के सामने जायेगा? क्योंकि जब सरकार की हकीकत कर्ज पर आश्रित हो तो वहां संगठन कैसे और क्या लेकर जनता के बीच जायेगा।
सरकार ने भाषणों में तो छः गारंटियां पूरी कर दी हैं लेकिन इसका सत्यापन तो जनता में कार्यकर्ता को करना है। क्या वह कर पायेगा कि सरकार ने गारंटियां पूरी कर दी हैं। कांग्रेस की संस्कृति में सरकार बनने के बाद संगठन गौण हो जाता है। ऐसे में जब सरकार ही निष्क्रियता का लांछन झेल रही हो तो कार्यकर्ता उस तस्वीर को कैसे बदल पायेगा। जब तक सरकार में गुणात्मक सुधार नहीं हो जाता है तब तक एक सार्थक और प्रभावी कार्यकारिणी का गठन एक असंभव प्रयास होगा। जब तक सरकार में कुछ बदलाव नहीं आता है तब तक कार्यकारिणी के गठन का हर प्रयास आधारहीन ही रहेगा।