क्या नये गठन में एक व्यक्ति एक पद पर अमल हो पायेगा?

Created on Tuesday, 12 November 2024 04:22
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। कांग्रेस हाईकमान ने हिमाचल प्रदेश की राज्य से लेकर ब्लॉक स्तर तक सभी ईकाईयों को भंगकर दिया है। राजनीतिक हल्कों में इसे एक बड़ा फैसला माना जा रहा है। हिमाचल में कांग्रेस की सरकार को सत्ता में आये दो वर्ष होने जा रहे हैं। प्रतिभा वीरभद्र सिंह ने प्रदेश विधानसभा के चुनावों से पहले संगठन की अध्यक्षता संभाली थी। बल्कि जब मण्डी से लोकसभा का उप चुनाव लड़ा था तब कुलदीप राठौर अध्यक्ष थे। प्रतिभा सिंह की अध्यक्षता में पार्टी विधानसभा चुनाव जीत कर सत्ता में आ गयी। परन्तु पार्टी की सरकार बनने के बाद लोकसभा की चारों सीटें हार गयी। राज्य सभा चुनाव के दौरान चुनाव हारने के साथ ही पार्टी के छः विधायक भी संगठन को छोड़कर भाजपा में शामिल हो गये। इन विधायकों के पार्टी छोड़ने के कारण हुये विधानसभा उपचुनावों में कांग्रेस ने फिर से चालीस का आंकड़ा तो हासिल कर लिया लेकिन इसी चुनाव में लोकसभा की चारों सीटें हार जाने का सच हाईकमान को शायद अब तक स्पष्ट नहीं हो सका है। ऐसे में विश्लेषकों के लिये यह एक महत्वपूर्ण सवाल हो जाता है कि आखिर हाईकमान को यह कदम क्यों उठाना पड़ा। प्रतिभा सिंह निष्क्रिय पदाधिकारी को बाहर करने की बात अकसर करती रही है। अब हाईकमान ने प्रतिभा सिंह की बात मानकर संगठन को नये सिरे से गठन करने की सिफारिश मानकर क्या संदेश दिया है यह समझना आवश्यक हो जाता है।
यह एक स्थापित सच है कि पार्टी को सत्ता में लाने के लिये संगठन की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। लेकिन सरकार बनने के बाद संगठन को साथ लेकर चलना सरकार की जिम्मेदारी हो जाती है। कांग्रेस ने विधानसभा का चुनाव सामूहिक नेतृत्व के नाम पर लड़ा था। विधानसभा चुनाव में सुक्खू मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं थे। सुक्खू मुख्यमंत्री केंद्रीय नेतृत्व की पसंद के कारण बने हैं। इसलिये मुख्यमंत्री बनने के बाद सबको साथ लेकर चलना मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी थी। परन्तु मुख्यमंत्री बनने के बाद मंत्रीमण्डल की शपथ के पहले मुख्य संसदीय सचिवों को शपथ दिलाना शायद पहला फैसला था जिस पर संगठन में कोई विचार विमर्श नहीं हुआ था। जिस तरह की कानूनी स्थिति सर्वाेच्च न्यायालय के फैसले के कारण बन चुकी थी उसके परिदृश्य में यह नियुक्तियां कोई बड़ी राजनीतिक समझ का प्रदर्शन नहीं थी। बल्कि आज भी न्यायालय के फैसले की प्रतीक्षा बनी हुई है। विपक्ष का फिजूलखर्ची पर यह पहला हमला होता है। वितीय संकट में चल रहे प्रदेश में ऐसी नियुक्तियों की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि प्रदेश के हालात श्रीलंका जैसे होने की चेतावनी इन नियुक्तियों से पहले ही दे दी गयी थी। फिर इन नियुक्तियों के बाद कैबिनेट रैंक में सलाहकारों और ओएसडी आदि की तैनाती ने स्थितियों को और गंभीर बना दिया। जब मंत्रिमण्डल का गठन हुआ तो उसमें कुछ पद खाली छोड़ दिये गये। खाली छोड़े गये पदों में से जब दो भरे गये तो उन्हें विभागों का आबंटन करने में ही आवश्यकता से अधिक देरी कर दी गयी। इस तरह राजनीतिक परिस्थितियां ऐसी बनती चली गयी कि संगठन सरकार में तालमेल का अभाव स्वतः ही सार्वजनिक होने लग पड़ा। राज्यसभा चुनाव तक पहुंचते- पहुंचते स्थितियां प्रबंधन से बाहर हो गयी।
मुख्यमंत्री ने पदभार संभालते ही प्रदेश की हालत श्रीलंका जैसे होने की चेतावनी तो दे दी थी। लेकिन उससे निपटने के लिए कर्ज और कर लगाने का आसान रास्ता चुन लिया। यह रास्ता चुनने के कारण विधानसभा चुनावों में दी गारंटीयां पूरी करने में कठिनाई आना स्वभाविक था। इसके परिणाम स्वरूप हर गारंटी में पात्रता के राइटर लगाने पड़ गये। राइटर लगाने का अघोषित कारण केन्द्र द्वारा आर्थिक सहयोग न मिलना प्रचारित किया गया। परन्तु इस प्रचार पर सुक्खू के कुछ मंत्रियों ने ही प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिये। भाजपा नेताओं ने केंद्रीय सहायता और सरकार द्वारा कर्ज लेने के आंकड़े जारी करने शुरू कर दिये। स्थितियां यहां तक उलझ गई कि प्रदेश की कठिन वितीय स्थिति का रिकॉर्ड विधानसभा के पटल पर रखते हुये मुख्यमंत्री को वेतन भत्ते निलंबित करने का फैसला पटल पर रखना पड़ गया। सरकार ने वित्तीय संसाधन बढ़ाने के लिये जिस तरह का करभार जनता पर बढ़ाना शुरू किया उन फैसलों पर सरकार जगहसाई का पात्र बन गयी। हर फैसले का स्पष्टीकरण जारी करने की बाध्यता बन गयी। अब जिस तरह से समोसा कांड और मुख्यमंत्री के फोटो प्रैस में जारी करने पर सरकार को पत्र लिखने पड़ गये हैं उससे यह सीधे सन्देश गया कि शायद शीर्ष नौकरशाही पर सरकार का नियंत्रण नहीं रह गया है। फैसलों के स्पष्टीकरणों से भाजपा के आरोप स्वतः ही प्रमाणित होते जा रहे हैं।
ऐसी वस्तुस्थिति में संगठन की इकाईयां भंग करके नये सिरे से गठन करने की कवायद का कितना व्यवहारिक लाभ होगा इस पर चर्चाएं चल पड़ी है। क्योंकि सरकार पर एक आरोप मित्रों की सरकार होने का बड़े अरसे से लगना शुरू हो गया है। ऐसे में स्वभाविक है कि यह मित्र लोग संगठन में भी बड़ा हिस्सा चाहेंगे। जबकि इस समय संगठन में ऐसे लोगों की आवश्यकता होगी जो अपनी ही सरकार से तीखे सवाल पूछने का साहस रखते हों। क्योंकि सरकार का सन्देश कार्यकर्ता के माध्यम से ही जनता तक जाता है और इस समय फैसलांे के स्पष्टीकरण के अतिरिक्त जनता में ले जाने वाला कुछ नहीं है। सरकार की परफॉरमैन्स अपनी गारंटीयों के तराजू में ही बहुत पिछड़ी हुई है। गारंटी 18 से 60 वर्ष की हर महिला को पन्द्रह सौ देने की थी जो अब पात्रता के मानकों में ऐसी उलझ गयी है की आने वाले समय में सरकार की सबसे बड़ी असफलता बन जायेगी। यही स्थिति रोजगार के क्षेत्र में है। ऐसे में यह देखना रोचक होगा कि इस परिदृश्य में संगठन का पुनर्गठन किन आधारों पर होगा। क्योंकि यह सरकार जिस तरह की वस्तुस्थिति में उलझ चुकी है उससे बाहर निकल पाना आसान नहीं होगा। नये पदाधिकारी सरकार के फैसलों पर कैसे अपना पक्ष रख पायेंगे? क्योंकि वित्तीय संकट के लिये पिछली सरकार को कोसते हुए उसके खिलाफ कौन सी कारवाई शुरू की गयी है। इसका कोई जवाब इस सरकार के पास नहीं है। ऐसे में यह पुनर्गठन प्रदेश नेतृत्व से ज्यादा हाईकमान की कसौटी बन जायेगा।