ऐसे फैसले चुनावों के दौरान ही क्यों आ रहे

Created on Sunday, 27 October 2024 08:24
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों के दौरान पांच लाख रोजगार उपलब्ध करवाने की भी गारंटी दी थी। सरकार बनने के बाद इस संबंध में एक मंत्री स्तरीय कमेटी का गठन भी किया था। इस कमेटी की रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया था की सरकार में ही 70000 पद रिक्त हैं। इससे यह उम्मीद बंधी थी कि सरकार में इतने युवाओं को तो रोजगार मिलेगा ही। लेकिन यह रिपोर्ट आने से पहले ही हमीरपुर स्थित अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड भ्रष्टाचार के आरोपों में भंग कर दिया गया और हजारों युवाओं के विभिन्न परीक्षा परिणाम लटक गये। अब बोर्ड के नए कलेवर में गठन और लंबित परीक्षा परिणाम घोषित करने के निर्देशों के साथ ही यह लगा था कि अब तो युवाओं को रोजगार मिल ही जायेगा। लेकिन जब दो वर्ष या इससे अधिक समय से सरकार और विभिन्न सार्वजनिक उपक्रमों में खाली चले आ रहे पदों को 2012 के निर्देशों के तहत समाप्त कर दिये जाने की अधिसूचना सामने आयी तो फिर सारा परिदृश्य बदल गया। क्योंकि राजनीतिक हल्कों में हलचल हो गई मुख्यमंत्री को स्वयं स्थिति स्पष्ट करनी पड़ी। इससे पहले जब खराब वित्तीय स्थिति के कारण वेतन भत्ते विलंबित करने की जानकारी सदन के पटल पर रख दी गई और उस पर बवाल मचा तो सरकार को वित्तीय स्थिति ठीक होने का प्रमाण कर्मचारियों और पैन्शनरों को एडवांस में वेतन और पैन्शन देकर रखना पड़ा। फिर टॉयलेट टैक्स की अधिसूचना के प्रकरण में भी यही हुआ सरकार को स्पष्टीकरण देना पड़ा। यह सब चुनाव के दौरान हुआ। सरकार के यह फैसले राष्ट्रीय चर्चा का विषय बने। हरियाणा में कांग्रेस की हार के लिये हिमाचल के इन  फैसलों को भी एक बड़ा कारण माना गया। अब फिर महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव के दौरान हिमाचल का यह फैसला आया अधिसूचना सामने आते ही पूरे देश में चर्चा चल पड़ी।
इस परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि हिमाचल में एक ही तरह की गलतियां बार-बार क्यों हो रही हैं और यह भी कुछ राज्यों के चुनावों के दौरान। स्वभाविक है कि जब सरकार को अपने फैसलों पर स्पष्टीकरण देने पड़े तो दूसरे लोग उसको किसी अलग ही राजनीतिक पैमाने से मापने का प्रयास करेंगे। क्योंकि हिमाचल के इन फैसलों का चुनावी राज्यों में कांग्रेस के खिलाफ एक नकारात्मक राजनीतिक तस्वीर बनाने में योगदान हो जाएगा। ऐसे में राजनीतिक विश्लेषकों के लिये यह एक बड़ा सवाल बन जाता है कि ऐसे फैसले हिमाचल सरकार ले ही क्यों रही है। जिनका स्पष्टीकरण देने के लिए मुख्यमंत्री को सामने आना पड़े। क्योंकि जब एक ही तरह के विवादित फैसले चुनावी वातावरण में आना शुरू हो जायें तो राजनीतिक विश्लेषक उसे सरकार की नीयत से जोड़कर देखना शुरू कर देते हैं। पदों को समाप्त करने के फैसले का स्पष्टीकरण देने के लिए मुख्यमंत्री को आना पड़ा तब यह सवाल उठता है कि संबंद्ध प्रशासन को ऐसी आधिसूचना जारी करने से पहले स्वयं प्रदेश को इसकी जानकारी नहीं देनी चाहिए थी। क्योंकि सरकार में ऐसे खाली चले आ रहे पदों को समाप्त करने का फैसला 2003 में लिया गया था। उस समय योजना आयोग के निर्देशों पर सरकार में एक शानन कमेटी गठित की गई थी। इस कमेटी ने तीन दिन तक फेयरलॉन में अधिकारियों के साथ बैठक करके एक रिपोर्ट तैयार की थी। विधानसभा में इस कमेटी की सिफारिशों पर कांग्रेस और भाजपा में खूब हंगामा हुआ था। दोनों दल एक दूसरे को इसके लिये जिम्मेदार ठहराते रहे हैं। उसी कमेटी की सिफारिशों के आधार पर 2012 में फैसला हुआ था ।
लेकिन इस बार यह अधिसूचना करने से पहले कोई इस तरह का होमवर्क नहीं किया गया। बल्कि जो स्पष्टीकरण मुख्यमंत्री ने दिया है वह किसी भी अधिसूचना में नहीं है। फिर सरकार के यह फैसले तब आये हैं जब दूसरे राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। निश्चित रूप से जिस तर्ज में यह फैसले प्रचारित और प्रसारित हुये हैं उससे कांग्रेस की कार्यशैली पर सवाल उठने सवभाविक हैं। फिर ऐसे फैसलों के नाजुक पक्षों को देखना शीर्ष प्रशासन का काम है और इसमें हर बार प्रशासन की भूमिका सवालों में रही है। इससे आने वाले समय में राजनीतिक कठिनाइयां बढ़ने की संभावना है। क्योंकि विक्रमादित्य ने जिस तरह से अपनी प्रतिक्रिया दी है उससे यह संकेत साथ दिखाई देते हैं। इसलिए यह अधिसूचनायें पाठकों के सामने रखी जा रही है ताकि आप स्वयं आकलन कर सकें। ऐसे विवादित फैसले चुनावों के दौरान ही क्यों आ रहे हैं यह सबसे बड़ा सवाल बनता जा रहा है ।

यह है अधिसूचनाएं