शिमला/शैल। क्या कर्नाटक में भाजपा की हार का कोई असर हिमाचल पर भी पड़ेगा? यह सवाल इसलिये प्रसांगिक है क्योंकि कर्नाटक की हार के लिये प्रधानमंत्री को जिम्मेदार ठहराने की बजाये पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के नाम यह हार लगाने की कवायद चल पड़ी है। नड्डा हिमाचल से ताल्लुक रखते हैं। पिछले पांच वर्षों में जब प्रदेश में जयराम के नेतृत्व में भाजपा की सरकार थी तब इस सरकार पर उठने वाले हर सवाल को नड्डा ने टाल दिया। नेतृत्व से लेकर मंत्रिमंडल में फेरबदल करने तक के हर सवाल को नड्डा की हां नहीं मिली। भले ही पार्टी प्रदेश में हार गयी। लेकिन अब कर्नाटक की हार का ठीकरा नड्डा के सिर फोड़ने के प्रयासों का जवाब देने के लिये नड्डा ने एक नयी रणनीति अपनाने का खेल रच दिया है। इस खेल में कानून के सहारे हिमाचल की सुक्खू सरकार को अस्थिर करने की योजना है। क्योंकि कर्नाटक की हार के बाद मोदी और उनकी भाजपा हाथ पर हाथ रखकर नही बैठ जायेगी। उसकी राजनीतिक प्राथमिकता होगी कांग्रेस की किसी भी चयनित सरकार को येन केन प्रकारेण अस्थिर करना। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में यह प्रयास सफल नहीं हो पाये हैं। फिर इन राज्यों में आगे चुनाव होने हैं। ऐसे में ऐसी योजना को पूरे सुरक्षित तरीके से अंजाम देने के लिये नड्डा के गृह राज्य हिमाचल से बेहतर और कोई स्थान हो नहीं सकता।
विश्लेषकों के मुताबिक यह व्यूह रचना प्रदेश में सुक्खू सरकार के गठन के साथ ही शुरू हो गयी थी। इसके पहले चरण में भाजपा के विश्वस्त रहे शीर्ष प्रशासन को सुक्खू सरकार में व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर स्थापित किया गया। वित्तीय स्थिति पर सदन में श्वेत पत्र तक नहीं आ पाया। मीडिया में भी स्थिति विवादित बना दी गयी। ताकि मुख्यमंत्री तक सही राय ही न पहुंच पाये। जिस कर्ज प्रवृत्ति को कोसा जा रहा सरकार को उसी पर आश्रित करवा दिया गया। संगठन के लोगों को सरकार में जिम्मेदारियां दी जाये प्रदेश अध्यक्ष को ऐसी मांग सार्वजनिक तौर पर रखने की नौबत आ गयी। यह सारा खेल पूरे योजनाबद्ध तरीके से खेला गया। इस खेल की अगली कड़ी में मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियों को प्रदेश उच्च न्यायालय में चुनौती की याचिकाएं आ गयी। अंतिम कड़ी में भाजपा के पूर्व अध्यक्ष विधायक सतपाल सत्ती और अन्य भाजपा विधायकों ने उपमुख्यमंत्री पदनाम को भी प्रदेश उच्च न्यायालय में चुनौती दे दी।
विश्लेषकों की राय में यह अहम सवाल है कि भाजपा विधायकों के नाम से उच्च न्यायालय में याचिका आने से स्पष्ट हो जाता है कि भाजपा ने पार्टी स्तर पर किसी ठोस मकसद से ही यह कदम उठाया होगा। इसके लिये केंद्रीय नेतृत्व से भी हरी झंडी ली गयी होगी। क्योंकि भाजपा शासित उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में भी उपमुख्यमंत्री हैं। संविधान में उपमुख्यमंत्री का कोई पदनाम न होने का जो प्रभाव हिमाचल में पड़ेगा वही उत्तर प्रदेश तथा महाराष्ट्र में होगा। जैसे हिमाचल में इस पदनाम को चुनौती दी गयी है उसी तर्ज पर हिमाचल का फैसला आने पर इन राज्यों में भी होगा। इसलिये यह माना जा रहा है कि भाजपा हिमाचल में इन याचिकाओं का फैसला शीघ्र करवाने के पूरे प्रयास करेगा। संविधान की जानकारी रखने वालों के मुताबिक यह फैसले उपमुख्यमंत्री और मुख्य संसदीय सचिवों के पक्ष में नहीं आयेंगे। उस स्थिति में मंत्रिमंडल के पुनर्गठन की स्थिति आ जायेगी। क्योंकि अभी ही मंत्री परिषद में तीन पद खाली चल रहे हैं। बल्कि यहां तक चर्चा है कि जिन गैर विधायकों को कैबिनेट दर्जा देकर नवाजा गया है उनको लेकर भी उच्च न्यायालय में याचिका आ सकती है। क्योंकि कैबिनेट दर्जा तो मंत्री को ही होता है और प्रदेश में यह दर्जा बारह से अधिक लोगों को शायद हो नहीं सकता है। ऐसा होने पर प्रदेश की राजनीति के सारे समीकरण बदल जायेंगे और शायद भाजपा की मंशा भी यही है। माना जा रहा है कि इन याचिकाओं के फैसले जल्द आ जायेंगे। यह फैसले आने पर स्वभाविक रूप से नये समीकरण बनेंगे। कई लोगों के स्वभिमान को ठेस पहुंचेगी। ऐसी स्थिति पर सरकार की कार्यप्रणाली पर भी सवाल उठेंगे। ऐसी स्थिति का लाभ उठाने का प्रयास भाजपा करेगी।