विद्युत परियोजनाओं के भविष्य पर किन्नौर त्रासदी से उठे सवाल

Created on Tuesday, 17 August 2021 13:28
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। किन्नौर में जिस तरह से वहां की जनता पर दुखों के पहाड़ टूट पड़े हैं उससे हर संवेदनशील व्यक्ति व्यथित हो गया है। इस त्रासदी ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या विकास के लिये इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। यह सवाल भी साथ ही उठ रहा है कि जब प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करके सारा सन्तुलन बिगाड दिया जायेगा तो क्या इसका अन्तिम परिणाम ऐसी ही त्रासदीयों के रूप में सामने नहीं आयेगा। यह क्षेत्र भूकम्प जोन पांच में आता है। 1971 में किन्नौर में भूकम्प आया था और उसका प्रभाव शिमला तक पड़ा था। उस समय शिमला का रिज और लक्कड़ बाज़ार एरिया प्रभावित हुआ था जो आज तक पूरी तरह संभल नहीं पाया है। 1971 में किन्नौर में कोई जलविद्युत परियोजना नहीं थी बल्कि प्रदेश के सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम ही 1974 के बाद गठित हुए हैं। उसके बाद ही प्रदेश की जलविद्युत क्षमता और सीमेन्ट का आकलन किया गया। इस आकलन में प्रदेश की पांच मुख्य नदी घाटियों में से सबसे अधिक नियोजित क्षमता सतलुज नदी घाटी की आंकी गयी। इस आकलन के बाद यहां जल विद्युत परियोजनाएं स्थापित करने की योजना बनी। किन्नौर में 53 जल विद्युत परियोजनाएं स्थापित करने की योजनाएं बनीं। किन्नौर में 53 जलविद्युत परियोजनायें प्रस्तावित हैं जिनमें से 3041 मैगावाट की 15 अलग-अलग क्षमता की परियोजनाएं चालू हैं। प्रस्तावित परियोजनाओं में 17 बड़ी परियोजनाएं हैं। यदि यह सारी परियोजनाएं क्रियान्वित हो जाती हैं तो 22% नदी बाधों के पीछे झील के रूप में खड़ी होगी और 72% सुरंगों के भीतर बहेगी।
इस संबंध में हुए अध्ययनों से सामने आया है कि जिले में 82% भूभाग पथरीला या उच्च हिमालय चरागाह के अर्न्तगत है। यहां के कुल वनक्षेत्र का 90% भाग जलविद्युत परियोजनाओं और टावर लाईनों के लिये प्रयुक्त हुआ है। बड़े पैमाने पर वनभूमि का हस्तान्तरण इन परियोजनाओं के लिये हुआ है। दस परियोजनाओं के लिये तो 415 हैक्टेयर के चिलगोज़ा के जंगलों का हस्तान्तरण हुआ है। चिलगोजा के जंगल केवल किन्नौर में ही पाये जाते हैं। जो अध्ययन हुए हैं उनमें यह सामने आया है कि इन परियजोनाओं के लिये 11589 पेड़ काटे गये हैं। लेकिन क्षतिपूर्ति वनीकरण में केवल 10% तक ही सफलता मिल पायी है। इससे सारे पर्यावरण का सुन्तलन बिगड़ गया है। ऐसे में जब सारी परियोजनाओं को शुरू कर दिया जायेगा तो उसके परिणाम कितने गंभीर होंगे इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। इस परिदृश्य में यह सवाल खड़ा हो गया है कि शेष बची परियोजनाओं को आगे बढ़ाया जाना चाहिये या इन्हें अब हुए नुकसान को सामने रखकर छोड़ दिया जाना चाहिये।
जब इन परियोजनाओं पर विचार शुरू किया गया था तब यह तस्वीर खींची गयी थी कि प्रदेश की सारी आर्थिक कठिनाईयां अकेले विद्युत के क्षेत्र से दूर हो जायेंगी। निवेश के लिये 1990 से प्राईवेट क्षेत्र को बुलाना शुरू किया गया था और तब बसपा परियोजना बिजली बोर्ड से लेकर जेपी समूह को दी गयी थी। इस परियोजना पर जो कुछ बिजली बोर्ड ने निवेशित कर रखा था वह ब्याज सहित वापिस लिया जाना था। लेकिन जब यह राशी 92 करोड़ को पहुंच गयी तब इसे यह कहकर बट्टे खाते में डाल दिया गया कि यदि इसे वापिस लिया जाता है तो जेपी अपनी बिजली की कीमत बढ़ा देगा और इससे जनता पर बोझ पड़ेगा। इस विषय पर कैग द्वारा की गयी टिप्पणीयों का भी सरकार पर कोई असर नहीं हुआ है। प्रदेश के सारे सार्वजनिक क्षेत्र के निवेश का 85% अकेले विद्युत क्षेत्र में निवेशित है और इससे कुल चिन्हित क्षमता 27436 मैगावाट में से केवल 10640.57 मैगावाट का ही दोहन हो पाया है। हिमाचल प्रदेश विद्युत बोर्ड लि. के जिम्मे विद्युत के वितरण का काम है और इसमें बोर्ड की संचित हानि 31 मार्च 2019 को 2092.86 करोड़ हो चुकी थी और विद्युत क्षेत्र का कर्जभार 9736.64 करोड़ हो चुका है। कैग के मुताबिक आज प्रदेश की विद्युत कंपनीयां अपने ब्याज का भार वहन करने की स्थिति में नहीं हैं। करोड़ो का अपफ्रन्ट प्रिमियम वसूला नहीं गया है। कुल मिलाकर आज प्रदेश का विद्युत क्षेत्र जिस धरातल पर खड़ा है उससे यह नहीं लगता कि जो उम्मीद आत्मनिर्भरता की इस क्षेत्र के माध्यम से सोची गयी थी वह कभी पूरी हो पायेगी। ऐसे में यह विचार करना आवश्यक हो जायेगा कि क्या इस विकास के लिये इतने जान-माल का नुकसान करवाना श्रेयस्कर होगा या नहीं। क्योंकि प्रकृति का सन्तुलन जिस अनुपात में बिगाड़ा जायेगा उसी अनुपात में यह नुकसान बढ़ता जायेगा और एक दिन इससे विद्युत का उत्पादन भी प्रभावित हो जायेगा।