कोरोना के प्रति सरकार की गंभीरता पर फिर उठे सवाल

Created on Wednesday, 20 January 2021 10:12
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। प्रदेश में हुए पंचायत चुनावों की प्रक्रिया दिसम्बर के अन्त में शुरू हो गयी थी। प्रक्रिया शुरू होने से इसके लिये नामांकन शुरू हो गया। 6 जनवरी को नाम वापसी के बाद प्रचार अभियान शुरू हो गया। यह चुनाव कोरोना काल में हो रहे थे। उम्मीदवारों और चुनाव प्रक्रिया में लगे कर्मचारियों के लिये कोरोना को लेकर जारी दिशा निर्देशों की अनुपालना करना अनिवार्य था। इस अनिवार्यता के तहत चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों का कोरोना टैस्ट भी अनिवार्य रखा गया था। यह टैस्ट 14 जनवरी को करवाया गया। चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के एक पखवाड़े के बाद यह टैस्ट करवाये जाने से कोरोना को लेकर सरकार की गंभीरता पर सवाल उठने शुरू हो गये हैं।
यह सवाल इसलिये उठने लगे हैं कि यदि कोई उम्मीदवार कोरोना पाजिटिव होता है तो उसके संपर्क में आने वाले लोगों का संक्रमित होना स्वभाविक हो जाता। इसके लिये नामांकन दायर करने के साथ ही कोरोना रिपोर्ट ली जानी चाहिये थी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। यह स्थिति पंचायती राज मन्त्री वीरेन्द्र कंवर के अपने चुनाव क्षेत्र में सामने आयी है। जब मन्त्री के अपने क्षेत्र में ही ऐसा हुआ है तो तय है कि पूरे प्रदेश में भी इसी तरह का आचरण रहा होगा। इसी में यह सवाल उठता है कि जब पंचायत चुनाव कोरोना काल में करवाने का फैसला लिया गया था तब इस संद्धर्भ में आवश्यक दिशा निर्देश जारी क्यों नहीं किये गये? क्योंकि उस समय ही प्रदेश में कोरोना पाजिटिवों का आंकड़ा पचास हजार से ऊपर पहुंच चुका था और हर रोज़ इसके मामले बढ़ रहे थे। यदि इस तरह के निर्देश जारी थे तो उनकी अनुपालना सुनिश्चित क्यों नहीं की गयी? क्योंकि जिस तरह की यह लापरवाही बरती गयी है उससे पूरे प्रदेश को कोरोना संक्रमण के खतरे में डाल दिया जाना किसी भी तरह से नज़रअन्दाज नहीं किया जा सकता।
यदि सरकार इस संद्धर्भ मेें स्थिति को स्पष्ट नहीं करती है और ऐसी लापरवाही के लिये किसी की जिम्मेदारी तय नहीं की जाती है तो स्वभाविक रूप से आम आदमी में यही संदेश जायेगा कि कोरोना कोई गंभीर समस्या नहीं है बल्कि सरकार इसके डर का अपनी सुविधानुसार उपयोग कर रही है क्योंकि कोरोना के कारण अभी तक भी सारी गतिविधियां सामान्य नहीं हो सकी है। शैक्षणिक संस्थान अभी तक बन्द चल रहे हैं उन्हे खोलने के निर्देशों में एसओपी की अनुपालना अनिवार्य रखी गयी है। बच्चों को स्कूल भेजने में अभिभावकों की सहमति की शर्त लगायी गयी है। एक ओर ऐसी गंभीरता और दूसरी ओर इतनी बड़ी लापरवाही सारी स्थिति को हास्यस्पद बना देती है। बल्कि इसमें सरकार के साथ ही विपक्ष की भूमिका पर भी सवाल उठते हैं कि उसने भी चुनावों के कारण इस ओर आंखे बन्द ही रखी।